गुरुवार, 25 दिसंबर 2014

श्राप

अमावस्या की रात में
जंगलों में बसी आत्माएं
हवाओं के साथ तैरती
आसमान में खूब ऊपर पहुंचकर
ठहर जातीं हैं;
दुःख के साथ देखतीं हैं
धरती पर फैले हुए नासूर को
गन्दगी और दर्द से भरी नसें,
उनके ऊपर जमीं मवाद की
थोथी सुनहली स्फटिक;
व्याकुल हो फेर लेतीं हैं
अपने चेहरे

एक स्त्री का
ममतामय षट्कोणीय आनन पिण्ड
तैर आता है शहर की छत पर
डूब जाता बर्फीले शोर में
उसके रात से काले गेसुए
ढक देते
दरिद्रता के नग्न
स्तनों और पंगुता के अदृश्य
हाथों को
सुला देते
थके हारे कामगारों को
अपने आगोश में …

उसके बालों के छोर
गुदगुदाते होठों को,
खींच देते मुस्कराहट
निद्रालु शक़्लों पर

उसकी आँखों की मद्धम रोशनी
और श्वास की गर्मी में
भूल जाते हैं शहर को चलाने वाले
अपनी चिंताएं
खेलने लगते हैं अपने सपनों में
बचपन के खिलौनों की यादों से

अपने थरथराते पीले पड़ते होठों से
वो चूमती है
चौराहे की कठोर सतह,
ये कहते हुए कि,
"खूबसूरत हो तुम,
श्राप नहीं है तुम्हारा अस्तित्व।"

उसकी त्वचा को छूते हुए
बड़ी रफ़्तार से निकल जाती हैं
घबराई गाड़ियाँ

शुक्रवार, 19 दिसंबर 2014

मन

वो देख रही है 
अभिभूत हो 
स्वप्नों के टुकड़ों
का किमेरा 

अंतरिक्ष के कोनों में 
सज गए हैं 
मोहब्बत में झुलसे हुए डामर के ड्रम, 
विचारमग्न बरगद के पेड़,
चट्टान सी सपाट भैंस की पीठ,
रेलमपेल, रंग और रुबाइयाँ 
गीत, ग़ज़लें और गाँजा 
झूले और झगड़े 
झाड़ पर टंगी होली पर फाड़ी गयी कमीज़
काई और कली से पुते गुम्बद
बारिश से धुली सड़क
और सवेरे के बन्दर 

पदार्थों और छायाओं की ओर झांकते,
विचित्रताओं के मेले में विचरते-विचरते
उसने छोड़ दी माँ की ऊँगली
और जाकर बैठ गयी
रेल के इंजन में
जहाँ दुनिया के नेता बने बनाये चित्रों में
रंग भर रहे हैं
महानता के निर्माण का शोर
बहरा करने पर आमादा है 
उसे प्रतिनिधियों की गतिविधियों का जीवित होना
पसंद आया है

"तुम्हारे पापा का नाम क्या है ?"
"पापा"
"तुम्हारी अम्मा का नाम क्या है ?"
"अम्मी"
"तुम कहाँ से कहाँ जा रहे हो ?"
"ननिहाल से घर"
कई मायनों में वह इस टेढ़े विश्व की
सच्ची बाशिंदी है।
(अम्मी को "बाशिंदे" का मतलब नही पता,
वो सर्दी में न नहाने के कारण बदबू मारते
उसके भाई को बाशिंदा कहती हैं )

पर यह सब घटित होता है
वास्तविकता की सलवटों में कहीं
गुप्त रूप से
अर्थहीनता के जंजाल के ठीक बाहर
उसके माँ-बाप पागलों की तरह
ढूँढ रहे हैं अपनी बच्ची का
मन

शनिवार, 13 दिसंबर 2014

रात

तालाब के गीले कोनो पर
ज़िन्दगी की जेबों में
सिमट कर बैठे हैं
गुलदस्ते
अपने घर मिटटी में डुबोए
इस इंतज़ार में कि
अनिर्वचनीय गंध वाली
अँधेरे की एक लट उन्हें प्यार
कर जाएगी
बयार सा ठंडा दामन
सहला जायेगा उन्हें
हंसी की सलवटों से लदी
नाक सा नन्हा चाँद
नहला देगा चांदनी से
उनकी खट्टी उँगलियों को

वो रात है स्वयं,
उसके हाथों से बने सीप से आवरण में सूरज
औंधे मुँह सोया है
सधे हुए नंगे कदमों से
सूखे पत्तों से लदी राह पर
वो रखती है ओस के मोती
सवेरे की दूब पर,
बढ़ती है पश्चिम की ओर
छिड़कते हुए
अल्हड़ मुस्कान का प्रभात

वो चलती है पानी पर यों
जैसे तैरते हैं बादल
पर्वत श्रृंखला के सहारे-सहारे

शुक्रवार, 5 दिसंबर 2014

रम, ख़ुशी और ममत्व

रम के नशे में अलमस्त हो,
नथुआ
गन्ने के जंगल से निकल कर
गाँव की ओर बढ़ा
झूलती गलियों और लड़खड़ाते पेड़ों
को कोसते हुए
उसने सितारों से रास्ता पूछा --
पर सितारे टिमटिमाने में व्यस्त हैं,
धरतीवासियों और उनके
पियक्कड़ बच्चों के फालतू सवालों
पर वो भेजापच्ची नहीं करते

सो बिना खगोलीय सहायता के
उलजलूल दुनिया में
सिरफिरा खो गया
जब बिस्तर के गीलेपन में हाथ मारकर
उसने अपने होश खोजे
तो चाँद उसका मुँह चिढ़ा रहा था
और उसके कानों में
भैंस के गोबर और बरसाती पानी
का ठंडा मिश्रण
प्यार की तरह उतर रहा था

एक पागल बूढी भिखारिन,
जिस पर सड़क के दोनों ओर से
बिजली के खंभे पीली रोशनी मूत रहें हैं,
अपने बेहद छोटे छप्पर से
सिर निकालकर,
जोर-जोर से अपने टुंडे हाथ हिलाकर,
पोपले मुँह से हंसकर
टिन के पींपे सी खाली रात में
दर्शकों के एक काल्पनिक
हुजूम के सामने
अपनी ख़ुशी अकारण व्यक्त कर रही थी

कुछ दूरी से एक लटकते खाली थनों वाली
कुतिया,
जिसके तीन पिल्लों को
कुत्ता सरदारों ने गोधूलि के वक़्त
मार डाला था,
अपनी आखिरी संतान को लिए
शरण की तलाश में
बुढिया के छप्पर की ओर भागी चली आ रही है
(कीचड में लंपलेट हो बडबडाते शराबी को
कुतूहल से देखते हुए)

गाँव से नौ-तीस पर निकलने वाली
दिन की आखिरी बस खों-खों करती हुई
इन सब पर कीचड़ और धुआं
उछालती हुई चली गई

राहत की बात है
कि रम, ख़ुशी और ममत्व
काफी गर्म होते हैं;
ठंडी रातों में
ज़िगर को जकड कर बैठे रहते हैं। 

रविवार, 30 नवंबर 2014

बकैती की आज़ादी

इंटरनेट विश्व, मूर्खों, महापुरुषों और खूबसूरत लड़कियों के बारे में जानकारी इकठ्ठा करने के लिए सुलभ ज्ञानालय है। कम से कम मेरे लिए। आज, जब मेरे पास दर-दर बिना जरुरत भटकने का वक़्त नहीं है, मैं इंटरनेट के माध्यम से अपनी इन्द्रियों और जिज्ञासा को संतुष्ट करता हूँ। यदि आप एक अकादमिक संस्था में काम कर रहे हैं तो आपको टैम ख़राब करने के लिए इंटरनेट मुफ्त मिलता है। वैसे अकादमिक संस्थाओं में काम करने वाले लोगों के लिए वक़्त बर्बाद करने बहुत जरुरी है, अन्यथा अजीर्ण होने की संभावना रहती है। यहीं मैं विलायती बालाओं की क्रीड़ाएं देखकर प्रफुल्लित होता हूँ, कोशिका संचार से सम्बद्ध  शोध पत्र पढता हूँ, जैज़ (अरे इसको कैसे लिखते हैं हिंदी में मियाँ ?) सुनता हूँ, समाचार गिटकता हूँ और दुनिया भर के बतक्कड़ों की बातें सुनाता हूँ। यह मेरा पाटा है, मेरी तशरीफ़ यहीं सुखी है। मेरे कान जैसे ही कोई अजाना शब्द सुनते हैं, मेडुला अब्लोंगेटा बिना प्रमष्तिष्क से विचार विमर्श किये मेरी उँगलियों को गूगल करने का आदेश दे देती हैं। ये मेरा घर है, ये मेरा जीवन है। 
इन दिनों समाज के ठेकेदार, उदारवाद के उदार, मेरे घर, मेरी आज़ादी को उजाड़ रहें हैं। किन्हीं को मैथुन वाली फ़िल्में गन्दी लगती हैं और कुछ को मुफ़्त में संगीत/किताबें/फ़िल्में प्राप्त करने के तरीके को कुचलना है। क्योंकि सिर्फ कानूनी तौर पर खरीदने वालों के पैसों से वे नया जेट नहीं खरीद पा रहे। पॉर्न के खिलाफ बकवास करने की तो बात ही छोड़ो। पर इन सब समस्याओं का हल निकलने के लिए मेरे साथ करोड़ों अन्य लोग प्रयत्नरत होंगे और कोई न कोई रास्ता ढूंढ ही लेंगे ताकि खूबसूरती के कुछ टुकड़े गरीबों तक भी पहुँच जाएँ। 

समस्या है कि ये लोग मुझ तक पहुँचने वाले समाचारों, ज्ञान, परिप्रेक्ष्यों के साथ खिलवाड़ कर रहें हैं। उनके पिछवाड़े में बड़ा दर्द है कि दुनिया का हर इंसान एकदम आदर्श इंसान क्यों नहीं है। वो लोग इतने महान हैं कि उन्हें लगता है कि उनकी महानता में कोई कमी रह गयी है जो दुनिया में अभी भी इतना पाप भरा है। कि दुनिया वाले सब मासूम हैं जो गलत परिस्थितियों में बड़े होने की वजह से दुष्ट हो गए हैं। इसी असह्य दुःख के चलते वे लम्बे, भारी-भरकम, असह्य लेख लिखा करते हैं और परिवर्तन तथा सुधार के बारे में बेमतलब बातें बका करते हैं जिनका वास्तविक विश्व पर कोई प्रभाव नहीं पड़ने वाला। वो बकने के अधिकार की तरफदारी करते हैं,तभी तक, जब तक कोई उनके खिलाफ नही बोल देता। ऐसा होने पर उन्हें पिछवाड़े के पोस्चर में परिवर्तन/सुधार करना पड़ता है और उसमे वीर रस भरना पड़ता है। वे सीधे तो बकने का अधिकार छीन नहीं सकते क्योंकि बकैती ही उनकी जीवनी है।  इस परिस्थिति में वे बैकग्राउंड चेक किया करते हैं। (अपना नहीं, दूसरों का) 

बैकग्राउंड चेक लोकतंत्र के लिए अच्छा ही होता है यदि आप अपनी उँगलियाँ गुदा से बाहर रखें तो। गुदा के रस्ते अपने विरोधियों की जान निकालना एक घृणित कर्म है। पर काले सफ़ेद को समझते समझते हम लोग वर्णान्ध हो गए हैं।  
चूँकि महात्मा गांधी अपने आश्रम की युवा लड़कियों के साथ अपने ब्रह्मचर्य की परीक्षा लेने के लिए सोये थे, उनके सिद्धांत समग्र रूप से गलत हैं। चूँकि बाबा रामदेव चूतिये हैं इसलिए योग को सामान्यजन तक बिना मिलावट किये लाना सम्पूर्ण रूप से व्यर्थ है। चूँकि केजरीवाल को बहुमत के दांव पेच नहीं आते, वो किसी काम के नहीं हैं। चूँकि नेहरू बहुत सारी महिलाओं के साथ रिश्ते रखते थे, उन्हें भारत के इतिहास के निचले, मैले वाले पीढ़े पर बिठाया जा सकता है। चूँकि इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी घोषित कर दी थी, वो प्रजातंत्र के नाम पर काला धब्बा है। क्योंकि स्वतंत्रता के पश्चात के दंगों के लिए, चीन से हारने के लिए, सिखों की हत्या के लिए, दिल्ली की दुर्दशा के लिए यही एक एक लोग जिम्मेदार हैं और इसके कारण उनके खिलाफ मज़बूत इंटरनेट मुहिम की ज़रुरत है।  क्योंकि भारत के हम महान निवासी एकदम मासूम हैं और बिना धर्म, जाति, भाषा, देश के पचड़ों के हम बहुत ही शांति से जीवनयापन कर रहे होते। क्योंकि मासूम निरपराध लोगों को ही मदद की जरुरत है शेष जो इधर उधर से जोड़ घटाकर बाल-बच्चों का पेट भर रहें हैं उनको तो हिन्द महासागर में फेंक देना चाहिए। 

नीरस और महत्वहीन बातों पर विचार प्रकट करना कोई मुश्किल बात नहीं है इसलिए हर कोई ये करने में  लगा हुआ है। सभी लोग समस्या के आस पास घुमते हुए समस्या नाम की झाडी को पीटते रहते हैं और कहते हैं की हमारी मदद करो, हम ये समस्या को हटाकर ही रहेंगे। पर कोई जो समस्या की जड़ की ओर हाथ बढाता है तो उसे झाड़ देतें हैं कि नहीं ये संवेदनशील इलाका है। इस तरह से पूरी दुनिया में लोग सब मूर्ख हो गए हैं और इन्ही महाशय के पास सब बीमारियों का जॉन लेनन वाला इलाज़ है। कोई इनकी बड़-बड़ को वास्तविक जगत में महत्त्व तो देता नही सो "इमेजिन" करते रहते हैं। इंटरनेट काल्पनिक तो नहीं है पर आभासी तो है। यहीं महानुभावों/मोहतरमाओं की इन्द्रियां धोखा खा जातीं हैं और वो इंटरनेट के सुधार कार्य में लग जाते हैं।  ऊपर से वो अभी तक फ्रायड का मनोविज्ञान ही समझ नहीं पा रहे हैं, व्यक्तिवाद तो दूर की चिड़िया है।  

इंटरनेट तो समाज का शीशा है जिसे ९० फ़ीसदी भारत तो काम ही नहीं लेता। इसे कहाँ कहाँ से ठीक करोगे! अपने समाज की शक्ल विडरूप छे विडरूप रहणी है। ५० साल शांति से क्या गुज़ार लिए इंसानों को गुमालते हो गए हैं अपने बारे में, कंप्यूटर पर बेठकर बकचोदी कर रहे हैं।  

सूर्य अस्त, पंजाबी मस्त

मैं 22 साल का हूँ और बिल्कुल भी बुड्ढा नहीं हूँ, ये बात पहले ही नोट कर ली जाये। मैं सनकी हूँ और मेरे सिर में काफी सफ़ेद बाल हैं, ये सच है। पर मैं एकदम बांका नौजवान हूँ। आई याम अवेलेबल। 

"सूर्य अस्त, पंजाबी मस्त।"
अबे सालों, पागल हो गए हो ? "सूर्य अस्त, पंजाबी मस्त।" तुम्हारा भेजा ठिकाने से गायब है ?
"सूर्य अस्त, पंजाबी मस्त।"
क्यों ड्रैकुला हैं पंजाब वाले ? और क्या केरल वाले सूर्य अस्त होने पर चिंता में पड़ जाते हैं ?
सूर्यअस्तपंजाबीमस्त। सूर्यअस्तपंजाबीमस्त। सूर्यअस्तपंजाबीमस्त। सूर्यअस्तपंजाबीमस्त।

एक बात बताओ पंजाब वालों तुम्हें इस गाने से घिन्न नहीं आती ? कोई इज्ज़त नहीं है तुम्हारी ? जो आया मिटटी पलीद कर गया। कोई सिर नहीं, पैर नहीं। अस्त-मस्त की अधजली तुकबंदी। सूर्य और पंजाबी में कोई रिश्ता नहीं। ये भी कह सकते हैं कि सूर्य अस्त, बंगाली मस्त। कुछ मेहनत-वेहनत की नहीं। स्क्रीन पर हिंगलिश में कर्सर घसीटा, दो आखर अपने मटर से दिमाग से निकाले, भेंस की टाँग, छिपकली की पूँछ, गाना तैयार। दिल्ली और चंडीगढ़ (हैदराबाद भी, साले हैदराबाद में भी नाच रहें हैं, वाह भारत माता वाह) के "रात्रि जीवन" जीने वाले युवाओं को मतलब थोड़ी है कि गाने के हिसाब से कौन मस्त हो रहा है और कौन अस्त।
सूर्य अस्त होने न होने से क्या होता है … जिसे मस्त रहना है वो हर वक़्त मस्त रहता है। बीकानेर में दोपहर दो बजे ठंडाई घुटती है और मोहल्ले के सारे बुढऊ पाटों पर जम ताश खेलते हैं और अर्थव्यवस्था के पतन से लेकर पोते की दस्तों तक का सारा इलज़ाम मनमोहन सिंह और सोनिया गाँधी पर लगाते हैं। (जब मै बीकानेर में था तब उनकी सरकार थी)
मैं ये नही कह रहा हूँ कि मेरे बचपन के समय फालतू गाने नहीं आते थे। उस वक़्त भी किसी मोहतरमा को किसी बंगले के पीछे वाली बेरी की छाँव में कांटा लग गया था तो चिल्लाने लगीं। और सारे भारत के नौजवानों के कान "ओड टू कांटा" सुनकर सतर्क हो गए। उस वक़्त ये बात काफी सामान्य लगी थी कि जो गाना सारे नौज़वानों को एक साथ रास आया है उसे तो बैन होना ही है। कांटा लगना विरह की चुभन को दर्शाता है। हमारा समाज उस चुभन को समझता है, उसे आश्रय देता है। पर इसका मतलब ये कतई नही था कि प्यार को भी आश्रय दिया जायेगा। इसलिए संभलकर, फूंक-फूंक कर पैर रखें और प्यार करें। अगर गलत व्यक्ति से प्यार कर लिया तो बदन की बोटी बोटी कर दी जाएगी।
पर अब तो टीवी ऑन किया और भांग पिए शिव-भक्तों की तरह नाचती लाइटें, अपने सीने का पसीना (सीने पे आया पसीना/मुझको तुमसे प्यार है हसीना… ये लो बन गया गाना) जीभ पर लगा कर सेक्सी दिखने वाले हीरो और उनके बगल में पहने हुए कपड़ों जितने ही कम भावों और चरित्र महत्ता वाली हीरोइन के अलावा कुछ नहीं दिखाई देता। मुझे भी पार्टी पसंद है। "पॉट्टी करनी है पॉट्टी करेंगे, किसी के भी पप्पा से नी डरेंगे।" पर दिनभर सलाद खाने से ना, सलाद से नफरत हो जाती है। अरे रुको, सलाद से नफरत तो ऐसे ही हो जाती है। कोई बात नहीं।
तो इस प्रकार फिल्मे अब काँटों पर सस्ती तुकबन्दियाँ लिखने से बहुत आगे निकल चुकीं हैं। अब वे नाहिलिज्म के कुओं में उतर रहे हैं। कई बार तो इतने गहरे चले जाते हैं कि दिखाई देना ही बंद हो जाते हैं। वैसे भी चंडीगढ़ के किसी डिस्को में एक्सटेसी और कोकेन चढ़ाते युवाओं को कलाकार के दिल की इन अथाह गहराइयों से कोई मतलब तो है नहीं। आंटी पुलिस बुला लेंगी तो उनके पार्टनर हैंडल कर ही लेंगे। तो परवाह किस बात की।


मुझे लगता है कि मैं समय से पहले बूढा हो गया हूँ, सटक गया हूँ। मेरे आस पास विलायती बबूल उग रहें हैं। आई याम सेलेक्टिवली अवेलेबल।   

गुरुवार, 27 नवंबर 2014

मौन

अनंत से प्रतीत होने वाले
लावा के एक विशाल सागर
के ऊपर, मैं भाग रहा हूँ
बदहवास
किसी जिन्न की दाढ़ी के बाल
पर, बड़ी रफ़्तार से
किसी गुत्थी की ओर
सीधे, नपे-तुले रास्तों पर होते हुए
घुस गया असंख्य विमाओं वाले
देश-काल के बवंडर में
जहाँ बहुत सारी चीज़ें घटित होतीं है
बहुत धीमी गति से
एक साथ

भागते बेदम स्थूलकाय परिप्रेक्ष्य (मैं)
समय से पिछड़ने लगे हैं
घिस रहे हैं समाप्ति को
क्षितिज से जिन्न की विशाल लाल ऑंखें
विकृत हो
फिसल आती हैं
अग्नि के क़ालीन पर

एक विकराल अंतःस्फोट
चबा जाता है मेरे अस्तित्व को
वाष्पित हो जाती हैं
स्मृतियाँ
दामन से
दहाड़ती दिशाओं के
जबड़े आ टकराते हैं
शून्य पर

रिक्तता, अनुपस्थिति, मौन।

तह करके रख दिए हैं
ब्रह्माण्ड ने अपने कपडे
इन्द्रियों की पहुँच से परे

विस्मय के बैठने को भी
ठौर नहीं बची है



। 

सोमवार, 24 नवंबर 2014

विवाद

दिन दहाड़े
अढ़ाई बजे की तपन में
अँधेरा हो गया है
धुंध के घाघरे पहन कर
दौड़ रहे हैं बादल
बदहवास हो
पत्थरों और तिनकों की
घातक बारिश
जगा देती है धरा को
आकुल होकर
उठती है वो
धड़कते हृदय को संभालकर
ढकती है अपनी आवाज
आश्चर्य, रोष और दुःख के साथ

दुस्साहसी पर्वतों का
महायुद्ध अपने चरम पर है
फैली हुई लाल आँखों से
गुस्सा उंडेल रहें हैं वो
एक दूसरे पर
प्रतिद्वंद्वी को अपने गौरव से
अपदस्थ करने को उद्यत

दूर करना होगा धरा को
इन शक्तिशाली मूर्खों को
भरना होगा विवादों और आरोपों
की खाई को
रूई और प्यार से

परन्तु ...
आसान नहीं है रक्ततलाई पर
पेण्ट करना मुहब्बत को

रविवार, 23 नवंबर 2014

मेरा परिचय और अन्य महत्वपूर्ण बातें

तो अब मैं एक किताब प्रकाशित करने की जद्दोजेहद में लगा हूँ। क्राउडफंडिंग कर रहा हूँ। हालाँकि लाल्टू ने मुझसे कहा था कि स्वतः प्रकाशन (पूरी तरह से नही, मुझे हिन्द युग्म के काम करने का तरीका अच्छा लगा।) की बजाय लोगों से बात करो, हिंदी साहित्य की दुनिया से परिचित हो जाओ, पर मैंने निश्चय कर लिया है कि कॉलेज से निकलने से पहले अपनी कवितायेँ अवश्य प्रकाशित करवाउँगा।
कई बार मैं आवेग में भर कर बेवकूफी भरे काम कर दिया करता हूँ। मुझे जब कवितायेँ बचकानी लगने लगती हैं तो मैं अपनी दैनिक भाग दौड़ का गुस्सा उनपर निकाल देता हूँ। हिंदी साहित्य के महान लोगों की रचनाओं के आगे मुझे अपनी रचनाएँ बचकानी लगेंगी और कुछ 70 कविताओं की राख आप हैदराबाद के किसी कूड़ेदान में पाएंगे। भाड़ में गए 4 साल की मेहनत और पढाई से लम्बे विचलन का एकमात्र कारण। 

मैं नवी कक्षा में जयशंकर प्रसाद-मैथिलीशरण गुप्त की कवितायेँ और प्रेमचंद की शुरुआती कहानियां पढ़कर बहुत प्रभावित हुआ और खुद लिखना शुरू किया। तब में एक बड़ा ही "संस्कारी" आदर्श बालक था (फेसबुक पर किसी ने बड़ा लाज़वाब पेज बना छोड़ा है।) उस वक़्त आदर्शों के बुखार में बूढ़े-दुखियारे माँ-बापों, उनकी 
विदेश में बसी अय्याश, नमकहराम (और काल्पनिक) औलादों, कल्पना ही से निकले मासूम ग़रीबों, पवित्र मित्रता के पुतलों पर कुछ एक दर्ज़न कविताएँ लिख डालीं। जिन्हे बारहवीं कक्षा में किसी शुभ तिथि को, आपने सही अंदाजा लगाया, आग के हवाले कर दिया। फिर मुझे अलंकारों का चस्का चढ़ा। दिनकर और "सुमन" को पढ़कर कुछ चार-पांच कवितायेँ ठोक डालीं जिनमे से एक ये है। मानव का पतन, विश्व का विनाश, प्रलय, प्रगति की अंधी दौड़, दोगले व्यक्तित्व वाले जहरीले लोग आदि आदि। शुक्र है उन सब को समय रहते ब्लॉग पर चढ़ा दिया। वरना आज मैं उन कविताओं की और उनकी तरह लिखी गयी कविताओं की ज़रा भी इज़्ज़त नही कर पाता। 

पर क्या हम अपने भूतकाल की तस्वीरों को जला देते हैं, केवल इसलिए कि हम थोड़े से उल्लू थे? दुःख की बात है कि आज इंटरनेट के ज़माने में थोक के भाव शब्द-वाक्य-तस्वीरें पैदा होते हैं और "बादल" में सदा सर्वदा इकट्ठे होने के बावजूद कुछ घंटों  में अपनी क़ीमत खो बैठते हैं। कई बार मुझे शक होता है कि कवितायेँ लिखने के कोई मायने रह भी गएँ हैं या नहीं। (देखिये मेरी एकाग्रता कितनी कमजोर पड़ गयी है।)

अच्छा तो मैं अपने बारे में बात कर रहा था। 

अज्ञेय, मन्नू भंडारी, दोस्तोवस्की की रचनाएँ पढ़ने के बाद मैंने अलंकारों (उपमा के अलावा) का सहारा लेना छोड़ दिया और धीरे धीरे एक अलग दिशा में बढ़ चला। मैं अब पूरी तरह से अलग कवि/लेखक और अलग इंसान हूँ (यदि मैं पैसे इकट्ठे कर पाता हूँ तो आप उन्हें जल्द ही देखेंगे)। मैं यह चाहता हूँ कि परिवर्तन की ये कवितायेँ जिन्दा रहें, भले ही तीन साल बाद जब मैं पीछे मुड़ कर देखूँ तो कुछ नज़र ना आये। 

इन लम्बे चार सालों में मैंने ना के बराबर हिंदी साहित्य पढ़ा। हिंदी कविता किस दिशा में चली गयी है इसका मेरे हाथ में कोई सुराग नहीं। टेलीविज़न और इंटरनेट के क्षितिज पर हिंदी साहित्य एक छोटा सा बिंदु है जो बिलकुल भी जगमगा नही रहा। आज हिंदी पढ़ने वाली एक सीनियर से श्रीलाल शुक्ल की "राग दरबारी" के बारे में सुना और हाथोहाथ किताब लेकर पढ़ना शुरू किया। इतनी शानदार किताब, जो 1968 में प्रकाशित हो गयी थी, कभी मेरे सामने नहीं आई और उधर चेतन भगत का लिखा रद्दी साहित्य धड़ल्ले से बिक रहा है, अंग्रेजी पाठक होने की अजीब सी दौड़ में खींच कर अच्छे-खासे अक्लमंद (जिनकी अक्ल बिलकुल भी मंद नहीं है) युवाओं के गले उतर रहा है। कभी कभी किसी हस्ती के निधन अथवा जयंती पर एकाध खबर बना दी जाती है। अरे यार, अगर साधारण दिनों पर कभी हिंदी साहित्यकार की बात नहीं करोगे तो "भावभीनी" श्रद्धांजलियों का क्या असर होगा? कैसे जानूँ इस बूरे हुए विश्व के बारे में?
इंटरनेशनल वेबसाइट्स सिर्फ इसलिए मुझे चूतिया किताबों और बेहूदी फिल्मों के एड देती हैं क्योंकि मैं एक भारतीय हूँ।

इसी बात से स्पर्श रेखा बनाते हुए चलते हैं (अंग्रेजी लुगदी साहित्य की बू आई?) और बारहवीं कक्षा की एक घटना पर इस बुरी तरह से उद्देश्यरहित, दुर्गठित वार्तालाप को ख़त्म करते हैं। 

मैंने दसवीं कक्षा के बाद अपनी शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी को बना लिया था। अच्छा किया वरना बगल में झोला लटकाये कॉफ़ी हाउस और प्रकाशनों के चक्कर लगा रहा होता। बारहवीं कक्षा में, जब हम उस विद्यालय, जो खुद दसवीं तक हिंदी में था, में पढ़ रहे थे, अखबारों (भास्कर और पत्रिका) ने लम्बे लम्बे लेख लिखे, जनता को बताया कि किस तरह बारहवीं हिंदी माध्यम की भौतिकी की पुस्तकें कठिन हिंदी शब्दों से लदी हुईं थीं। न्यूटन के नियम और अन्य मान्यताएं (शुद्ध हिंदी में थी) उद्धरण बना कर लिखी गयीं। कहा गया कि संवेग, आवेग और घूर्णन जैसे शब्द बच्चों के लिए मुसीबत खड़ी कर रहें हैं। सब और मूर्ख लोग खड़े होकर चिल्लाने लगे कि बच्चों पर अत्याचार हो रहे हैं, बच्चों पर अत्याचार हो रहे हैं। 

ऐसा बिलकुल भी नहीं था। पढाई के मामले में मैं एक साधारण लड़का रहा हूँ और विज्ञान के मूलभूत सिद्धांत पूरी तरह से अंग्रेजी में सीखने के बावजूद मुझे कभी हिंदी माध्यम की वो किताब पढ़ने में कोई दिक्कत नही हुई। लोग इस बात को बहुत हल्का ले लेते हैं पर मुझे सेंट्रीफ्यूगल, एक्विलिब्रियम, कोरोलरी जैसे शब्द सीखने में बहुत तकलीफ हुई। पर यार जिस भाषा में तुम विज्ञान पढ़ना चाहते हो उस भाषा में सम्बंधित कठिन शब्दावली तो सीखनी ही होगी। इसमें अत्याचार की क्या बात है! हिंदी में समय "बर्बाद" करना काम आया और बाद में पिलानी में मेस वालों के बच्चों को पढाते वक़्त मुझे कोई तकलीफ नही हुई जबकि मेरे साथी जो पढ़ाने के इच्छुक होने के बाद भी पढ़ा नही पाते थे मेरी मदद माँगा करते थे। 

अपनी पुस्तक प्रकाशित करवाने की जल्दी के अलावा अपना भूतकाल आपको समझा दिया है। अगली बार कुछ लिखने से पहले थोड़ी तैयारी करूँगा। "राग दरबारी" पढने के बाद शायद में पुरानी लेखनपद्धतियों थोड़ा आगे बढ़ कर, आपके थोड़ा नज़दीक आकर बात करूँगा, शायद वो कुछ जमे। 

हाँ, यदि मेरी किताब प्रकाशित करवाने में मेरी मदद करना चाहते हैं तो मुझसे ashishbihani1992@gmail.com पर संपर्क करें। अपनी कुछ तकलीफें आपके हवाले करूँगा। अभी भागता हूँ, एक प्रोटीन म्यूटैंट बनाना शुरू करना है।

शुक्रवार, 21 नवंबर 2014

यज्ञ

सड़क किनारे एक बहरूपिया
इत्मीनान से सिगरेट सुलगाये
झाँक रहा है
अपनी कठौती में

चन्द्रमा की पीली पड़ी हुई परछाई
जल की लपटों के यज्ञ
में धू-धू कर जल रही है
रात के बादल धुंध के साथ मिलकर
छुपा लेते हैं तारों को
और नुकीले कोनो वाली इमारतों
से छलनी हो गया है
आसमान का मैला दामन
ठंडी हवा और भी भारी हो गयी है
निर्माण के हाहाकार से

उखाड़ दिया गया है
ईश्वरों को मानवता के केंद्र से
और अभिषेक किया जा रहा है
मर्त्यों का
विशाल भुजाओं वाले यन्त्र
विश्व का नक्शा बदल रहे हैं

उसके किले पर
तैमूर लंग ने धावा बोल दिया है
उस "इत्मीनान" के नीचे
लोहा पीटने की मशीनों की भाँति
संभावनाएं उछल कूद कर रहीं हैं
उत्पन्न कर रहीं हैं
मष्तिष्क को मथ देने वाला शोर

उसकी खोपड़ी से
चिंता और प्रलाप का मिश्रण बह चला है
और हिल रही हैं
आस्था की जड़ें

एक रंगविहीन परत के
दोनों और उबल रहा है
अथाह लावा

(नयी कविता लिखी ! )

गुरुवार, 20 नवंबर 2014

ईश्वर एक उपमा है।

राजपथ के किनारे
रात के बादलों से घिरी
एक लड़की को
हवाएं चूमती हैं
और कपडे सहलाते हैं
पर वह खूबसूरत महसूस नहीं करती ,
घसीटती हुई चलती है
अपने पैरों को
कंकरीली धरती पर
दिशाओं में कुत्ते गुर्राते हैं
और फुफकारते हैं नीम के पेड़

प्यार और गोलियाँ ,
वर्षा और विघटन
गले मिलते हैं

दीर्घ उच्छ्श्वास ,
उत्तेजित रोम ,
आत्मविश्वास।
उरोज ठोड़ी की ओर बढ़ते हैं ,
भोंहे कानों की ओर

अस्तित्व के फूल खिलते हैं
एक बार फिर
यकायक भान हुआ है
त्वचा को स्पर्श का
दृष्टि को उपस्थिति का
समाप्त हो गयी है प्रलय
उदय हुआ है आह्लाद का।

उधर तूफानों के परे
आसमान में कहीं
एक ईश्वर
उत्सव और समृद्धि के ढेर में बैठा
देखता है इस सूक्ष्म ,
नगण्य जीवन को
परिवर्तित होते
नापता है उसे अपनी हथेली
की तुलना में
व्यंग्य भरी हंसी हँसता है
द्रुत निश्वास के साथ

बड़ा गर्व है उसे ,
अपनी विशालता पर ,
शक्ति पर ,
त्रिगुणातीत होने पर …

ईश्वर मूर्ख है ,
ईश्वर विपन्न है ,
ईश्वर अपूर्ण है।

ईश्वर एक उपमा है।

बुधवार, 19 नवंबर 2014

शहर की आत्मा

बीहड़ शहर के धुर मध्य में
एक मंच पर खड़ी हो
समृद्धि गुनगुनाती है
विचारों , आदर्शों और नैतिकता
के गीत

नीचे
कचरे के गड्ढों में
भीड़ उत्पात मचा रही है।
सड़ते अवशिष्टों से
उठती घनी दुर्गन्ध से
गश खाकर गिर पड़े हैं कौए
मृत्यु की मिक्सी में

शहर के किनारों पर तबाही मचाते
दानव
बढ़ रहे हैं गुरुत्व केंद्र की ओर
विनाश की भनक पाकर
एक अधनंगा पागल भिखमंगा
व्यस्त हो गया है
पॉलिथीन की थैलियाँ जुटाने में

मल और मूत्र की चौड़ी धाराओं को
मथ रहे हैं लाखों पैर
स्वर्ण निकलने के लिए

'ये गुनगुनाहट
शहर की आत्मा है
और ये भगदड़
अस्तित्व बचाने का
संघर्ष है
ये सब जरूरी है ,
ये सब वास्तविक है। ‘
वे मानते हैं।
और वे लग जाते हैं
पुनः पसीना बहाने

जब मृत्यु के संदेशवाहक
पहुंचेंगे
तो वे चढ़ाएंगे
सुवर्ण और पॉलिथीन के
चढ़ावे
बचायेंगे अपना अस्तित्व।

(प्यार-२)

मंगलवार, 18 नवंबर 2014

आत्ममंथन

क्या क्या नही करते लोग
पाने के लिए शान्ति
मुक्ति चाहते हैं वो
अशांति से
जो मिली है उन्हें
उपहार में
अघ के आनंद के
सह उत्पाद सी

प्रयत्नरत हैं
घृणित कर्मों की
अंतहीन श्रृंखला के अंत में
कैसे जोड़ें एक नगीना
कि उसकी चकाचोंध में
अदृश्य हो जाये
ये पाप ईश्वर की दृष्टि में

फिर तो कर रहे वे
वृथा ही प्रयास
विश्व की आँखों पर तो
पहले से ही
डाल रखा है पर्दा
और, ईश्वर की अलौकिक ऑंखें
नहीं होती है चकाचोंध

जो बिना पावों के
चक्कर लगाता है ब्रह्माण्ड के
जो भोजन करता है बिना जीभ के
सुनता है बिना कान के
सूंघता है बिना नाक के
असीम है भौतिक क्षमताएं
कैसे प्रवंचित करोगे उसे

भूलो ये झूठे चोचले
स्वार्थ से पूर्ण परोपकार
झूठों से भरा पश्चाताप
भीड़ के समक्ष
बस एक बार झांको अंदर
अपने दामन के
स्वीकार लो समस्त पाप
स्वयं के समक्ष
बिना स्वयं के पक्ष में तर्क दिए
आत्ममंथन से गुजरो जरा

पर यही तो है
मुसीबत है, हो सकता ऐसा
तो जरुरत ही न पड़ती इसकी
स्वयं ही तो नही स्वीकार पाते
कि हम है दूषित
दुनिया के भरोसे तो हम पोत सकते हैं
कालिख पर भी कालिख
क्या देखती है ये
अंधी दुनिया
और
क्या ही है इसका न्याय
हमसे ही बनी है
हमारे जैसी है
काली कलूटी
आत्मसाक्षात्कार में
अक्षम
तभी तो शान्ति पाने के लिए
क्या क्या करते हैं लोग !

(पुरानी कविता है। )

रुको … सुनो !

तुम घूमती हो व्याकुल हो कर
मेरे ह्रदय में, सदा छलते शिकार के पीछे
मैं अपनी क्षुधा, अपनी व्यथा
रात्रि के गले में उंडेलता हूँ

एक गूँज लौट कर आती है
और बहा ले जाती है मुझे
मैं विलाप करता हूँ, उष्म-बिम्ब !
तुम्हारे लिए

भय के मेंढकों की टर्र-टर्र
आभास कराती है, बाघिन के आगमन का
सचेत हो गए हैं कांटे और झाड़ियाँ
पर तुम अविचलित निकल गयीं मेरी
नाटकीय बक बक से
बिना मलिन हुए, बिना उत्तेजित हुए

मैं भूल रहा हूँ
सूत्रों और मन्त्रों की दुनिया को,
मेरे जेहन से मिट गए हैं
कवि , सियार और लकड़बग्घे
अविश्वास भरी आँखों से क्या देख रही हो मेरी तरफ ?
क्या अभी महसूस हुई है मेरी चेतना ?
मैं जंगल हूँ प्राणेश्वरी…
और मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूँ।

(प्यार-१)

On Rain and Thunder

बटेउ ओ केरो खडको 
चाल्यो बरखा रो चरखो 

गोबर अर फूस सुं ढंकी गलियां 
में भर बह्यो गन्दळो जळ 
नगरी रे ढसते परकोटे पर 
फट पड़ी है पीपळ री कोम्पळ 

थार री माटी रा कण 
नाचे है धोरा री चोटी पर 
आभा घुमड़े रे
नथुना में सौरम माटी री भर
आज तो सड़पांला
तीखी बूंदा रा झोलां में

नयोड़ी छतरी ने परखो
चाल्यो बरखा रो चरखो

सोमवार, 17 नवंबर 2014

दो पल का जीवन मांग रहें हैं

वचन दिया था गीता में ‘मैं आऊंगा’, पर तू होता नहीं अवतीर्ण है।
यहाँ आज जब मानवता के प्रासाद हो रहे जीर्ण शीर्ण हैं।
मनुष्य नहीं दिखते यहाँ, यद्यपि नगर ये जनाकीर्ण हैं।
होते मानव शेष यहाँ तो क्यों अस्त्रों शस्त्रों से, पृथ्वी का वक्ष होता विदीर्ण है।
हो गया है दैत्यों का राज्य फिर से, हर जीव यहाँ भयभीत है।
सूनी प्रकृति ,सूने जंगल, सब गाते मृत्यु के गीत हैं।
देखता नहीं तेरी धरती को, क्या हुआ तू अवचेत है।
बांटकर तुझे लड़ते आपस में, कहा तूने था कि तू अद्वैत है।

निरपराधों पर आग बरसाते, कहतें है ईश्वर कि आज्ञा।
अवचेत होकर दे भी हो तूने, तो क्या उनके पास नहीं है प्रज्ञा।
भूख प्यास से नन्हे जीवों का मुख, अब हो रहा है विवर्ण।
विश्व के नक्कारों में दबती पुकारें उनकी, क्या तेरे पास नहीं है कर्ण।
माना कि तुझे मानें न मानें, इसकी तुझे परवाह नहीं।
पर क्या धरती की रक्षा की तुझे रही कोई चाह नहीं।
माना कि हम समझ न पाए तुझे कभी, तेरी नहीं कहीं भी थाह है।
पर मदद कि गुहार लगायें कहाँ, तू ही सबका अल्लाह है।

धन ,धान्य, धर्मं, द्युति माँगना, मेरा नहीं स्वभाव है।
कंचन की कामना करूँ कैसे फिर, यहाँ भोजन का अभाव है।
तेरी आवश्यकता आ पड़ी अब हमें, मानव स्वयं सहाय्य में नहीं समर्थ है।
पर तू उदासीन बैठा है क्षीर में, इसका क्या ये अर्थ है।
निर्माण और पोषण करके विश्व का, अब यदि विनाश को प्रबुद्ध तू।
स्वयं ही नष्ट कर मानव जाति को, धरती को कर दे शुद्ध तू।
पर वर्त्तमान विधि उचित नहीं, न होने दे आपस में युद्ध तू।
कुचल दे धूमकेतु से हमें, यदि हमसे है क्रुद्ध तू।
पर इस अनल का कर दे शमन, तू कर दे पृथ्वी पुत्रों का उद्धार।
मृत्यु से पहले थोड़ा जी लें हम, ये अस्वस्थ मृत्यु नहीं स्वीकार।
नाश से पहले फलना फूलना सीख लें, हम जीवन जीना भूल गए हैं।
ये पल पल की मृत्यु बहुत हो चुकी, दो पल का जीवन मांग रहें हैं।