रविवार, 30 नवंबर 2014

बकैती की आज़ादी

इंटरनेट विश्व, मूर्खों, महापुरुषों और खूबसूरत लड़कियों के बारे में जानकारी इकठ्ठा करने के लिए सुलभ ज्ञानालय है। कम से कम मेरे लिए। आज, जब मेरे पास दर-दर बिना जरुरत भटकने का वक़्त नहीं है, मैं इंटरनेट के माध्यम से अपनी इन्द्रियों और जिज्ञासा को संतुष्ट करता हूँ। यदि आप एक अकादमिक संस्था में काम कर रहे हैं तो आपको टैम ख़राब करने के लिए इंटरनेट मुफ्त मिलता है। वैसे अकादमिक संस्थाओं में काम करने वाले लोगों के लिए वक़्त बर्बाद करने बहुत जरुरी है, अन्यथा अजीर्ण होने की संभावना रहती है। यहीं मैं विलायती बालाओं की क्रीड़ाएं देखकर प्रफुल्लित होता हूँ, कोशिका संचार से सम्बद्ध  शोध पत्र पढता हूँ, जैज़ (अरे इसको कैसे लिखते हैं हिंदी में मियाँ ?) सुनता हूँ, समाचार गिटकता हूँ और दुनिया भर के बतक्कड़ों की बातें सुनाता हूँ। यह मेरा पाटा है, मेरी तशरीफ़ यहीं सुखी है। मेरे कान जैसे ही कोई अजाना शब्द सुनते हैं, मेडुला अब्लोंगेटा बिना प्रमष्तिष्क से विचार विमर्श किये मेरी उँगलियों को गूगल करने का आदेश दे देती हैं। ये मेरा घर है, ये मेरा जीवन है। 
इन दिनों समाज के ठेकेदार, उदारवाद के उदार, मेरे घर, मेरी आज़ादी को उजाड़ रहें हैं। किन्हीं को मैथुन वाली फ़िल्में गन्दी लगती हैं और कुछ को मुफ़्त में संगीत/किताबें/फ़िल्में प्राप्त करने के तरीके को कुचलना है। क्योंकि सिर्फ कानूनी तौर पर खरीदने वालों के पैसों से वे नया जेट नहीं खरीद पा रहे। पॉर्न के खिलाफ बकवास करने की तो बात ही छोड़ो। पर इन सब समस्याओं का हल निकलने के लिए मेरे साथ करोड़ों अन्य लोग प्रयत्नरत होंगे और कोई न कोई रास्ता ढूंढ ही लेंगे ताकि खूबसूरती के कुछ टुकड़े गरीबों तक भी पहुँच जाएँ। 

समस्या है कि ये लोग मुझ तक पहुँचने वाले समाचारों, ज्ञान, परिप्रेक्ष्यों के साथ खिलवाड़ कर रहें हैं। उनके पिछवाड़े में बड़ा दर्द है कि दुनिया का हर इंसान एकदम आदर्श इंसान क्यों नहीं है। वो लोग इतने महान हैं कि उन्हें लगता है कि उनकी महानता में कोई कमी रह गयी है जो दुनिया में अभी भी इतना पाप भरा है। कि दुनिया वाले सब मासूम हैं जो गलत परिस्थितियों में बड़े होने की वजह से दुष्ट हो गए हैं। इसी असह्य दुःख के चलते वे लम्बे, भारी-भरकम, असह्य लेख लिखा करते हैं और परिवर्तन तथा सुधार के बारे में बेमतलब बातें बका करते हैं जिनका वास्तविक विश्व पर कोई प्रभाव नहीं पड़ने वाला। वो बकने के अधिकार की तरफदारी करते हैं,तभी तक, जब तक कोई उनके खिलाफ नही बोल देता। ऐसा होने पर उन्हें पिछवाड़े के पोस्चर में परिवर्तन/सुधार करना पड़ता है और उसमे वीर रस भरना पड़ता है। वे सीधे तो बकने का अधिकार छीन नहीं सकते क्योंकि बकैती ही उनकी जीवनी है।  इस परिस्थिति में वे बैकग्राउंड चेक किया करते हैं। (अपना नहीं, दूसरों का) 

बैकग्राउंड चेक लोकतंत्र के लिए अच्छा ही होता है यदि आप अपनी उँगलियाँ गुदा से बाहर रखें तो। गुदा के रस्ते अपने विरोधियों की जान निकालना एक घृणित कर्म है। पर काले सफ़ेद को समझते समझते हम लोग वर्णान्ध हो गए हैं।  
चूँकि महात्मा गांधी अपने आश्रम की युवा लड़कियों के साथ अपने ब्रह्मचर्य की परीक्षा लेने के लिए सोये थे, उनके सिद्धांत समग्र रूप से गलत हैं। चूँकि बाबा रामदेव चूतिये हैं इसलिए योग को सामान्यजन तक बिना मिलावट किये लाना सम्पूर्ण रूप से व्यर्थ है। चूँकि केजरीवाल को बहुमत के दांव पेच नहीं आते, वो किसी काम के नहीं हैं। चूँकि नेहरू बहुत सारी महिलाओं के साथ रिश्ते रखते थे, उन्हें भारत के इतिहास के निचले, मैले वाले पीढ़े पर बिठाया जा सकता है। चूँकि इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी घोषित कर दी थी, वो प्रजातंत्र के नाम पर काला धब्बा है। क्योंकि स्वतंत्रता के पश्चात के दंगों के लिए, चीन से हारने के लिए, सिखों की हत्या के लिए, दिल्ली की दुर्दशा के लिए यही एक एक लोग जिम्मेदार हैं और इसके कारण उनके खिलाफ मज़बूत इंटरनेट मुहिम की ज़रुरत है।  क्योंकि भारत के हम महान निवासी एकदम मासूम हैं और बिना धर्म, जाति, भाषा, देश के पचड़ों के हम बहुत ही शांति से जीवनयापन कर रहे होते। क्योंकि मासूम निरपराध लोगों को ही मदद की जरुरत है शेष जो इधर उधर से जोड़ घटाकर बाल-बच्चों का पेट भर रहें हैं उनको तो हिन्द महासागर में फेंक देना चाहिए। 

नीरस और महत्वहीन बातों पर विचार प्रकट करना कोई मुश्किल बात नहीं है इसलिए हर कोई ये करने में  लगा हुआ है। सभी लोग समस्या के आस पास घुमते हुए समस्या नाम की झाडी को पीटते रहते हैं और कहते हैं की हमारी मदद करो, हम ये समस्या को हटाकर ही रहेंगे। पर कोई जो समस्या की जड़ की ओर हाथ बढाता है तो उसे झाड़ देतें हैं कि नहीं ये संवेदनशील इलाका है। इस तरह से पूरी दुनिया में लोग सब मूर्ख हो गए हैं और इन्ही महाशय के पास सब बीमारियों का जॉन लेनन वाला इलाज़ है। कोई इनकी बड़-बड़ को वास्तविक जगत में महत्त्व तो देता नही सो "इमेजिन" करते रहते हैं। इंटरनेट काल्पनिक तो नहीं है पर आभासी तो है। यहीं महानुभावों/मोहतरमाओं की इन्द्रियां धोखा खा जातीं हैं और वो इंटरनेट के सुधार कार्य में लग जाते हैं।  ऊपर से वो अभी तक फ्रायड का मनोविज्ञान ही समझ नहीं पा रहे हैं, व्यक्तिवाद तो दूर की चिड़िया है।  

इंटरनेट तो समाज का शीशा है जिसे ९० फ़ीसदी भारत तो काम ही नहीं लेता। इसे कहाँ कहाँ से ठीक करोगे! अपने समाज की शक्ल विडरूप छे विडरूप रहणी है। ५० साल शांति से क्या गुज़ार लिए इंसानों को गुमालते हो गए हैं अपने बारे में, कंप्यूटर पर बेठकर बकचोदी कर रहे हैं।  

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें