रविवार, 23 नवंबर 2014

मेरा परिचय और अन्य महत्वपूर्ण बातें

तो अब मैं एक किताब प्रकाशित करने की जद्दोजेहद में लगा हूँ। क्राउडफंडिंग कर रहा हूँ। हालाँकि लाल्टू ने मुझसे कहा था कि स्वतः प्रकाशन (पूरी तरह से नही, मुझे हिन्द युग्म के काम करने का तरीका अच्छा लगा।) की बजाय लोगों से बात करो, हिंदी साहित्य की दुनिया से परिचित हो जाओ, पर मैंने निश्चय कर लिया है कि कॉलेज से निकलने से पहले अपनी कवितायेँ अवश्य प्रकाशित करवाउँगा।
कई बार मैं आवेग में भर कर बेवकूफी भरे काम कर दिया करता हूँ। मुझे जब कवितायेँ बचकानी लगने लगती हैं तो मैं अपनी दैनिक भाग दौड़ का गुस्सा उनपर निकाल देता हूँ। हिंदी साहित्य के महान लोगों की रचनाओं के आगे मुझे अपनी रचनाएँ बचकानी लगेंगी और कुछ 70 कविताओं की राख आप हैदराबाद के किसी कूड़ेदान में पाएंगे। भाड़ में गए 4 साल की मेहनत और पढाई से लम्बे विचलन का एकमात्र कारण। 

मैं नवी कक्षा में जयशंकर प्रसाद-मैथिलीशरण गुप्त की कवितायेँ और प्रेमचंद की शुरुआती कहानियां पढ़कर बहुत प्रभावित हुआ और खुद लिखना शुरू किया। तब में एक बड़ा ही "संस्कारी" आदर्श बालक था (फेसबुक पर किसी ने बड़ा लाज़वाब पेज बना छोड़ा है।) उस वक़्त आदर्शों के बुखार में बूढ़े-दुखियारे माँ-बापों, उनकी 
विदेश में बसी अय्याश, नमकहराम (और काल्पनिक) औलादों, कल्पना ही से निकले मासूम ग़रीबों, पवित्र मित्रता के पुतलों पर कुछ एक दर्ज़न कविताएँ लिख डालीं। जिन्हे बारहवीं कक्षा में किसी शुभ तिथि को, आपने सही अंदाजा लगाया, आग के हवाले कर दिया। फिर मुझे अलंकारों का चस्का चढ़ा। दिनकर और "सुमन" को पढ़कर कुछ चार-पांच कवितायेँ ठोक डालीं जिनमे से एक ये है। मानव का पतन, विश्व का विनाश, प्रलय, प्रगति की अंधी दौड़, दोगले व्यक्तित्व वाले जहरीले लोग आदि आदि। शुक्र है उन सब को समय रहते ब्लॉग पर चढ़ा दिया। वरना आज मैं उन कविताओं की और उनकी तरह लिखी गयी कविताओं की ज़रा भी इज़्ज़त नही कर पाता। 

पर क्या हम अपने भूतकाल की तस्वीरों को जला देते हैं, केवल इसलिए कि हम थोड़े से उल्लू थे? दुःख की बात है कि आज इंटरनेट के ज़माने में थोक के भाव शब्द-वाक्य-तस्वीरें पैदा होते हैं और "बादल" में सदा सर्वदा इकट्ठे होने के बावजूद कुछ घंटों  में अपनी क़ीमत खो बैठते हैं। कई बार मुझे शक होता है कि कवितायेँ लिखने के कोई मायने रह भी गएँ हैं या नहीं। (देखिये मेरी एकाग्रता कितनी कमजोर पड़ गयी है।)

अच्छा तो मैं अपने बारे में बात कर रहा था। 

अज्ञेय, मन्नू भंडारी, दोस्तोवस्की की रचनाएँ पढ़ने के बाद मैंने अलंकारों (उपमा के अलावा) का सहारा लेना छोड़ दिया और धीरे धीरे एक अलग दिशा में बढ़ चला। मैं अब पूरी तरह से अलग कवि/लेखक और अलग इंसान हूँ (यदि मैं पैसे इकट्ठे कर पाता हूँ तो आप उन्हें जल्द ही देखेंगे)। मैं यह चाहता हूँ कि परिवर्तन की ये कवितायेँ जिन्दा रहें, भले ही तीन साल बाद जब मैं पीछे मुड़ कर देखूँ तो कुछ नज़र ना आये। 

इन लम्बे चार सालों में मैंने ना के बराबर हिंदी साहित्य पढ़ा। हिंदी कविता किस दिशा में चली गयी है इसका मेरे हाथ में कोई सुराग नहीं। टेलीविज़न और इंटरनेट के क्षितिज पर हिंदी साहित्य एक छोटा सा बिंदु है जो बिलकुल भी जगमगा नही रहा। आज हिंदी पढ़ने वाली एक सीनियर से श्रीलाल शुक्ल की "राग दरबारी" के बारे में सुना और हाथोहाथ किताब लेकर पढ़ना शुरू किया। इतनी शानदार किताब, जो 1968 में प्रकाशित हो गयी थी, कभी मेरे सामने नहीं आई और उधर चेतन भगत का लिखा रद्दी साहित्य धड़ल्ले से बिक रहा है, अंग्रेजी पाठक होने की अजीब सी दौड़ में खींच कर अच्छे-खासे अक्लमंद (जिनकी अक्ल बिलकुल भी मंद नहीं है) युवाओं के गले उतर रहा है। कभी कभी किसी हस्ती के निधन अथवा जयंती पर एकाध खबर बना दी जाती है। अरे यार, अगर साधारण दिनों पर कभी हिंदी साहित्यकार की बात नहीं करोगे तो "भावभीनी" श्रद्धांजलियों का क्या असर होगा? कैसे जानूँ इस बूरे हुए विश्व के बारे में?
इंटरनेशनल वेबसाइट्स सिर्फ इसलिए मुझे चूतिया किताबों और बेहूदी फिल्मों के एड देती हैं क्योंकि मैं एक भारतीय हूँ।

इसी बात से स्पर्श रेखा बनाते हुए चलते हैं (अंग्रेजी लुगदी साहित्य की बू आई?) और बारहवीं कक्षा की एक घटना पर इस बुरी तरह से उद्देश्यरहित, दुर्गठित वार्तालाप को ख़त्म करते हैं। 

मैंने दसवीं कक्षा के बाद अपनी शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी को बना लिया था। अच्छा किया वरना बगल में झोला लटकाये कॉफ़ी हाउस और प्रकाशनों के चक्कर लगा रहा होता। बारहवीं कक्षा में, जब हम उस विद्यालय, जो खुद दसवीं तक हिंदी में था, में पढ़ रहे थे, अखबारों (भास्कर और पत्रिका) ने लम्बे लम्बे लेख लिखे, जनता को बताया कि किस तरह बारहवीं हिंदी माध्यम की भौतिकी की पुस्तकें कठिन हिंदी शब्दों से लदी हुईं थीं। न्यूटन के नियम और अन्य मान्यताएं (शुद्ध हिंदी में थी) उद्धरण बना कर लिखी गयीं। कहा गया कि संवेग, आवेग और घूर्णन जैसे शब्द बच्चों के लिए मुसीबत खड़ी कर रहें हैं। सब और मूर्ख लोग खड़े होकर चिल्लाने लगे कि बच्चों पर अत्याचार हो रहे हैं, बच्चों पर अत्याचार हो रहे हैं। 

ऐसा बिलकुल भी नहीं था। पढाई के मामले में मैं एक साधारण लड़का रहा हूँ और विज्ञान के मूलभूत सिद्धांत पूरी तरह से अंग्रेजी में सीखने के बावजूद मुझे कभी हिंदी माध्यम की वो किताब पढ़ने में कोई दिक्कत नही हुई। लोग इस बात को बहुत हल्का ले लेते हैं पर मुझे सेंट्रीफ्यूगल, एक्विलिब्रियम, कोरोलरी जैसे शब्द सीखने में बहुत तकलीफ हुई। पर यार जिस भाषा में तुम विज्ञान पढ़ना चाहते हो उस भाषा में सम्बंधित कठिन शब्दावली तो सीखनी ही होगी। इसमें अत्याचार की क्या बात है! हिंदी में समय "बर्बाद" करना काम आया और बाद में पिलानी में मेस वालों के बच्चों को पढाते वक़्त मुझे कोई तकलीफ नही हुई जबकि मेरे साथी जो पढ़ाने के इच्छुक होने के बाद भी पढ़ा नही पाते थे मेरी मदद माँगा करते थे। 

अपनी पुस्तक प्रकाशित करवाने की जल्दी के अलावा अपना भूतकाल आपको समझा दिया है। अगली बार कुछ लिखने से पहले थोड़ी तैयारी करूँगा। "राग दरबारी" पढने के बाद शायद में पुरानी लेखनपद्धतियों थोड़ा आगे बढ़ कर, आपके थोड़ा नज़दीक आकर बात करूँगा, शायद वो कुछ जमे। 

हाँ, यदि मेरी किताब प्रकाशित करवाने में मेरी मदद करना चाहते हैं तो मुझसे ashishbihani1992@gmail.com पर संपर्क करें। अपनी कुछ तकलीफें आपके हवाले करूँगा। अभी भागता हूँ, एक प्रोटीन म्यूटैंट बनाना शुरू करना है।

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