रविवार, 30 नवंबर 2014

सूर्य अस्त, पंजाबी मस्त

मैं 22 साल का हूँ और बिल्कुल भी बुड्ढा नहीं हूँ, ये बात पहले ही नोट कर ली जाये। मैं सनकी हूँ और मेरे सिर में काफी सफ़ेद बाल हैं, ये सच है। पर मैं एकदम बांका नौजवान हूँ। आई याम अवेलेबल। 

"सूर्य अस्त, पंजाबी मस्त।"
अबे सालों, पागल हो गए हो ? "सूर्य अस्त, पंजाबी मस्त।" तुम्हारा भेजा ठिकाने से गायब है ?
"सूर्य अस्त, पंजाबी मस्त।"
क्यों ड्रैकुला हैं पंजाब वाले ? और क्या केरल वाले सूर्य अस्त होने पर चिंता में पड़ जाते हैं ?
सूर्यअस्तपंजाबीमस्त। सूर्यअस्तपंजाबीमस्त। सूर्यअस्तपंजाबीमस्त। सूर्यअस्तपंजाबीमस्त।

एक बात बताओ पंजाब वालों तुम्हें इस गाने से घिन्न नहीं आती ? कोई इज्ज़त नहीं है तुम्हारी ? जो आया मिटटी पलीद कर गया। कोई सिर नहीं, पैर नहीं। अस्त-मस्त की अधजली तुकबंदी। सूर्य और पंजाबी में कोई रिश्ता नहीं। ये भी कह सकते हैं कि सूर्य अस्त, बंगाली मस्त। कुछ मेहनत-वेहनत की नहीं। स्क्रीन पर हिंगलिश में कर्सर घसीटा, दो आखर अपने मटर से दिमाग से निकाले, भेंस की टाँग, छिपकली की पूँछ, गाना तैयार। दिल्ली और चंडीगढ़ (हैदराबाद भी, साले हैदराबाद में भी नाच रहें हैं, वाह भारत माता वाह) के "रात्रि जीवन" जीने वाले युवाओं को मतलब थोड़ी है कि गाने के हिसाब से कौन मस्त हो रहा है और कौन अस्त।
सूर्य अस्त होने न होने से क्या होता है … जिसे मस्त रहना है वो हर वक़्त मस्त रहता है। बीकानेर में दोपहर दो बजे ठंडाई घुटती है और मोहल्ले के सारे बुढऊ पाटों पर जम ताश खेलते हैं और अर्थव्यवस्था के पतन से लेकर पोते की दस्तों तक का सारा इलज़ाम मनमोहन सिंह और सोनिया गाँधी पर लगाते हैं। (जब मै बीकानेर में था तब उनकी सरकार थी)
मैं ये नही कह रहा हूँ कि मेरे बचपन के समय फालतू गाने नहीं आते थे। उस वक़्त भी किसी मोहतरमा को किसी बंगले के पीछे वाली बेरी की छाँव में कांटा लग गया था तो चिल्लाने लगीं। और सारे भारत के नौजवानों के कान "ओड टू कांटा" सुनकर सतर्क हो गए। उस वक़्त ये बात काफी सामान्य लगी थी कि जो गाना सारे नौज़वानों को एक साथ रास आया है उसे तो बैन होना ही है। कांटा लगना विरह की चुभन को दर्शाता है। हमारा समाज उस चुभन को समझता है, उसे आश्रय देता है। पर इसका मतलब ये कतई नही था कि प्यार को भी आश्रय दिया जायेगा। इसलिए संभलकर, फूंक-फूंक कर पैर रखें और प्यार करें। अगर गलत व्यक्ति से प्यार कर लिया तो बदन की बोटी बोटी कर दी जाएगी।
पर अब तो टीवी ऑन किया और भांग पिए शिव-भक्तों की तरह नाचती लाइटें, अपने सीने का पसीना (सीने पे आया पसीना/मुझको तुमसे प्यार है हसीना… ये लो बन गया गाना) जीभ पर लगा कर सेक्सी दिखने वाले हीरो और उनके बगल में पहने हुए कपड़ों जितने ही कम भावों और चरित्र महत्ता वाली हीरोइन के अलावा कुछ नहीं दिखाई देता। मुझे भी पार्टी पसंद है। "पॉट्टी करनी है पॉट्टी करेंगे, किसी के भी पप्पा से नी डरेंगे।" पर दिनभर सलाद खाने से ना, सलाद से नफरत हो जाती है। अरे रुको, सलाद से नफरत तो ऐसे ही हो जाती है। कोई बात नहीं।
तो इस प्रकार फिल्मे अब काँटों पर सस्ती तुकबन्दियाँ लिखने से बहुत आगे निकल चुकीं हैं। अब वे नाहिलिज्म के कुओं में उतर रहे हैं। कई बार तो इतने गहरे चले जाते हैं कि दिखाई देना ही बंद हो जाते हैं। वैसे भी चंडीगढ़ के किसी डिस्को में एक्सटेसी और कोकेन चढ़ाते युवाओं को कलाकार के दिल की इन अथाह गहराइयों से कोई मतलब तो है नहीं। आंटी पुलिस बुला लेंगी तो उनके पार्टनर हैंडल कर ही लेंगे। तो परवाह किस बात की।


मुझे लगता है कि मैं समय से पहले बूढा हो गया हूँ, सटक गया हूँ। मेरे आस पास विलायती बबूल उग रहें हैं। आई याम सेलेक्टिवली अवेलेबल।   

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