बुधवार, 23 दिसंबर 2015

समतल

मैं बैठ गया
एक सर्वत्रगामी बस की सभी सीटों पर
देखे कुछ हज़ार भिखारी बुड्ढे...
मृतप्राय
जिनकी दायीं आंख में एक दरार थी
जिनके कम्बलों में छेद थे
जिनकी लाशें उठने पर
धरती के कोने हो गए समतल
मिट गए दयनीय मुस्कुराहटों के गुत्थीदार गुम्बे

(बुढ़ापा - ५)

सोमवार, 26 अक्तूबर 2015

मेरी कविता "शाप" का वीडियो




मेरी 58 कविताओं का संग्रह "अन्धकार के धागे" हिन्द-युग्म द्वारा प्रकाशित किया गया है. यदि आपको यह कविता पसंद आती है तो इंफीबीम से संकलन की प्रति अवश्य आर्डर करें.


यहाँ में संकलन में से एक कविता, 'शाप' पढ़ रहा हूँ, गौर करें.

रविवार, 6 सितंबर 2015

राजेश जी शर्मा

राजेश जी शर्मा हमें विज्ञान पढ़ाते थे
उनको बहुत इंग्लिश नहीं आती थी
और वो अपनी बी.एससी. पूरी करने की कोशिश कर रहे थे
उनकी समस्याएं साधारण (जिनसे आप बोर हो चुके होंगे)
और जीवन मुश्किल था
वो हमें विज्ञान मेले में ले गए
सुबह क्विज के लिए तैयार होने को उठाया
हमारे दिल में विज्ञान के प्यार की अलख जगाई
हमारे घड़े को जूतों से घड़ा


अब हमने इंग्लिश सीख ली है
एम्.एससी. कर ली है
हमारे जीवन मुश्किल नहीं हैं
हमारी समस्याएं असाधारण हैं (जिनकी कविताएँ आप पढना चाहते हैं)
पर हम जब सुबह उठते हैं
तो वो हमसे पहले उठते हैं हमारी नींद में से
कमरे में टहलते हैं
कहते हैं
“क्या तुमने कभी सोचा है?”


(शिक्षक दिवस पर)

रविवार, 21 जून 2015

जूतमपैजार

पसीने से तरबतर
दढ़ियल दद्दा ने
अपने घिसे फ्रेम और मोटे लेंस वाले चश्मे को
नीले- सलेटी चैक्स छपी लुंगी पर साफ़ किया
और नए-नवेले अंधड़ में से
सड़क के पार देखा
इमारतों पर जमी धूल की चद्दरें बदल दी गयीं हैं
झाड़ दिए गए हैं पेड़ों के लिबास
हवाएं फटे गले से घोषणा करती हैं
वर्षा के आगमन की

वर्षों से जारी हानिकारक ज़र्दे के सेवन से
भूरे-कत्थई पड़े दांतों पर उन्होंने
जीभ फिराई और
नमक, पानी और धूल का मिश्रण
सड़क के किनारे थूक दिया

बारिश की जूतमपैजार के समक्ष उन्होंने अपना
झुर्रियों भरा चेहरा पेश कर दिया;
किसी कारण से उन्होंने
अपनी नवजात पोती को याद किया
जिसने चलाये थे उनके चेहरे पर
नन्ही लातें और घूंसे
और मूत्र की गर्म धार

(बुढ़ापा-)

रविवार, 14 जून 2015

बोरियत

बोरियत भरी कुर्सी से
तशरीफ़ को बड़ी मुश्किल से उठा
दद्दी पोर्च की रेलिंग की ओर चल पड़ी

पोतों की सनसनाती गेंदों,
चिलचिलाती धूप से तपे संगमरमर के फर्श,
सूखती हुई बड़ी
इत्यादि को पार किया
रेलिंग पर पहुँचकर
नाक उठाकर मौसम का जायज़ा लिया,
दूर पटरियों पर धड़धड़ाती रेल की और
लानतें उछालीं
और वापस निराश सी दिखती
अपनी बोरियत की बोरी पर जा बैठी।


(बुढ़ापा-)

रविवार, 31 मई 2015

बचपन ५-८

खेल
चाँदनी के उजास में
झिलमिलाती झील के किनारे
पसरे उजाड़ में
एक छोटा लड़का और एक छोटी लड़की
एक विशाल नारंगी गेंद से
खेल रहे थे;
वो सूर्य था।

स्पीड ब्रेकर
बचपन के मैदानों से निकलकर
छोटी सी छोकरी
प्यार की ढलानों पर 
उत्साह से साईकिल दौड़ा रही थी।
रास्ते में बाँध सा ऊँचा
स्पीड ब्रेकर आया …
साईकिल उछली, लड़की सड़क किनारे खड़े
अचंभित से खम्भे के आधार पर
मुँह के बल गिरी
ठुड्डी फूट गयी, रक्त बह चला।

आधिपत्य
एक गज बाई एक गज की जमीन पर
हमने अपना आधिपत्य घोषित किया
इमारतें, रेलवे स्टेशन, खेत, टंकियाँ,
सड़कें, कीचड़, टेबलें, कुर्सियाँ,
सपने, मिटटी और चुम्बन
इन सबको लेकर शहर बनाया
भीड़ और प्रदूषण से मुक्त
रीसाइकलेबल शहर
आदर्श शहर
दो सींकें गाड़कर कागज़ से स्वागत द्वार बनाया
उसपर लिखा "कॉपीराईट © ऑल राईट्स रिज़र्व्ड"

उत्सव 
कंकड़ पत्थरों से भरे
एक उबड़ खाबड़ मैदान को मैंने
समतल बनाया
और बहत्तर-बीसी कविताएँ
बड़ी नज़ाकत से बिछा दीं

आसमान से देवताओं की जमात
ताली बजाते हुए उतरी;
मेरी कविताओं पर कूद-कूद कर
एक-एक की मिट्टी पलीद कर दी।

गुरुवार, 28 मई 2015

उगल

बाबू साब को लगता था
कि उनके आस-पास घूमते
हाड़-माँस के पुतले सब इंसान हैं,
और दिल के बोझे को
ऑफिस की डेस्क पर रखकर
ली जा सकती है
चैन की साँस।

कलम के रजिस्टर पर घिसटने के
प्रवाह में
उन्होंने उगल दिए पेषणी के पत्थर
और लार में डूबी भोजन की लोइयां
घृणा के साथ
बॉस ने उनकी तरफ देखा
और हवा में जुमला उछाल दिया
"कंगाली में आटा गीला"

उनकी ऊपर की साँस ऊपर रह गयी
नीचे की साँस नीचे।
तुरंत घूमकर
बटन सी आँखों में झाँका
और पाया वही मिथकीय जानवर
जिसके वास्तविक होने की संभावना से
आजतक वो भय खाते आए थे।
उनके बोझे में जुड़ गया एक पत्थर…
एक विचार,
जिससे वो नफ़रत कर सकते हैं
आजीवन।
(दुनिया के बाशिंदे-)

शुक्रवार, 22 मई 2015

रामराज्य

सलेटी आँखों वाले एक बुढऊ
सर्पिलाकार यातायात के
बगल में
लम्बे-लम्बे डग भरते,
लोगों से टकराते
सर हिलाते भागे जा रहे हैं
बदहवास
यातायात के अंत की ओर
जहाँ ख़त्म होता है
कोलाहल, प्रदूषण और इंसानों का सैलाब;

जहाँ मिलते हैं
निर्वाण और सठियाहट,
कच्ची ईमलियाँ और नकली दाँत,
साफ़ कीचड़ और हथकढ़ वाले गेडिये,
अख़बार और पाटे,
मसालों की गन्ध और मुल्ला की अजान
टेढ़े-मेढ़े संकरे रास्ते और
स्वस्थ गायों के छोड़े पोठे।

काले बादलों की आड़ में
कहीं छुपा रामराज्य
जिसकी खोज में बिता दिए
ऋषि-मुनियों ने
युग और कल्प

(बुढ़ापा-२)

सोमवार, 18 मई 2015

मैंने क्या किया था?

लाल ऑंखें, भारी सर और बैंगनी परछाइयाँ लेकर
मैं घूमा स्मृतियों के चौबारों में
गलियों में
तलघरों की घुटी हुई सीलन सूंघते हुए
मैं तैरा भारी-भरकम हवा में

मैंने देखे खड्डे,
अँधेरे के कान,
खुरदरी सफेदी,
लोगों के ढक्कन…
किसी कला प्रदर्शनी के
अनुशाषित दर्शक की भाँति
ऊटपटांग कलाकृतियों से बचकर निकलते हुए।

काँटों के बिस्तरों के छह अंगुल
ऊपर से
मैंने मज़ाक उड़ाया विश्व का
युधिष्ठिर सा अभिमान लिए,
सत्यों से लिपटी अधखायी आइसक्रीम
मैंने छोड़ दी पिघलने को
जून की तपती दोपहर में

पुनर्विचार की खिड़कियों पर लगे पर्दों से
सलवटें ग़ायब हैं
कोरे हैं सारे कागज़ इन मेजों पर
दीवार पर लटके दिशा-निर्देश
पूछते हैं एक महत्वपूर्ण प्रश्न,
आख़िर मैंने किया क्या था?
(दुनिया के बाशिंदे-३)

शनिवार, 11 अप्रैल 2015

शाश्वत

गांव के बाहर
दो सेवानिवृत् डोकरों ने
कंकड़-पत्थरों से अपने-अपने किले चिण रखे हैं।
उनके नाम हैं,
"हम जड़ हैं"
और
"हम चेतन हैं"।
बड़ेरों की सिखाई नीतियों और
सालों की मगज़मारी से उपजी कूटनीति
का अनुसरण करते हुए
वे एक-दूसरे पर हमले करते हैं
पुनः बनाते हैं खोये हुए परकोटे,
पाटते हैं तकनीकी खामियाँ।

सैद्धांतिक है उनके उत्तर-पडूत्तर,
सत्य ही उद्देश्य है।
उसे पाने की दौड़-धूप में
अनंत के दोनों छोरों के बीच कहीं भी
नहीं रुकते वो…
उनका होना और नित्य लड़ना जरुरी है,
है विश्व के हित में।

(बुढ़ापा-१)

शुक्रवार, 27 मार्च 2015

बचपन : १-४

१.
मामाजी 
सूरज की बची-खुची चमक को
आसमान ने घोंट दिया
अपने सलेटी लबादे में,
ओढ़ा दिया अँधेरा
छटपटाते हुए
गांवों, जंगलों और पहाड़ों को --
और डपटकर बोला,
"चुप्प करके सो जाओ अब,
एकदम चुप्प!"

२.
नहानघर
मूसलाधार वर्षा की हिंसा
के समक्ष घुटने टेक दिए
मिट्टी के घरोंदों और पुतलों ने,
शिलाचूर्ण का समाज बह गया
अपने ही दुराग्रह में
परत-दर-परत;

आवाज़ों के विस्तृत सिंचित भूभाग
की मिट्टी के हर दाने से
फट पड़ीं कोंपलें,
निकल पड़े काँटे।

३.
अकाल 
प्रेमबाई के घर के पिछवाड़े में
एक तालाब हुआ करता था
जो अब सामुदायिक टट्टीघर है।

कभी उस तालाब ने
मानसून के जोश में उफन कर
बहा दिया था कस्बे के एकमात्र सिनेमा हॉल को।
पाल की मिट्टी को झाड़ियों की जड़ों से काट
वह भाग निकला।
पीछे छोड़ गया
उघड़ी, फटेहाल धरती,
और हरा, काई भरा रुदन करते पेड़।

४.
डाम 
पुराने अस्पताल की पीली पुती
दीवारों पर
शनैः-शनैः काई की ज़िल्द चढ़ रही थी।
गगनचुम्बी नीम के पेड़ों से
हवा के चिड़चिड़े झोंकों के साथ
झड़ जाते कबूतरों के सैलाब
और पीली पत्तियों के झुण्ड…

पानी के छोटे से तालाब में छप-छप करना
बंद करके हमने निश्चय किया
पकड़नी ताली खेलने का।
सबकी हथेलियाँ नीचे की ओर थीं, मेरी ऊपर की ओर…
दूर से मम्मी अर्जुन की भांति जूता ताने दौड़ी आ रही थी,
डाम। 

गुरुवार, 19 मार्च 2015

सुरक्षा

पीवर लैदर का बैग सहलाते हुए अंकल
अचानक ठिठक कर पास की
दूकान का बोर्ड देखने लगे,
उत्सुकता और जिज्ञासा से …

नीम के पेड़ की पत्तियों के बीच घुसा
जंग लगा बोर्ड
साफ सुथरे तरीके से कुछ
कह नहीं पा रहा था,
सो अपनी जांघ के सहारे
एक ग़ायब-गूंगा ढोलक
बजाते हुए
झड़ती पत्तियों को घूरने लगे।

कुछ दूरी पर
फुटपाथ से उतर कर
असंख्य सूखी पत्तियों का मरघट
रुकी नाली के रिसाव में मिलकर
कीचड़ का रूप ले रहा था;
हर दो मिनट में
हंगामा मचाती सिटी बस
गोली की तरह निकलती,
कीचड को गिट्टी में बराबर कर जाती।

अंकल ने भयातुर होकर देखा
हरीतिमा के अस्थि-पंजरों का कुचला जाना;
अपनी ऐनक से
शोर, पसीना और निराशा पोंछकर
उन्हें एक बेहतर जगह पर
खड़ा होने का निश्चय किया
बस पकड़ने के लिए,
सुरक्षित महसूस करने के लिए।

(दुनिया के बाशिंदे-२)

गुरुवार, 12 फ़रवरी 2015

तार

गर्म पत्थरों और बारिश
के मिलन से
छस्स-छस्स करती दोपहर में
पसीने से नहाई हुई
बड़-बड़ करती औरत
दे मारती है
एक भारी हथौड़ा
ठण्डी वास्तविकता पर
और खेंचती है
खयालों के तार

जिनसे उड़ाएगी पतंगें
जो कभी न कटेंगी
कभी न गिरेंगी

बनाएगी
अवध्य-अभेद्य हवाई किले

और अमरत्व देने वाला सूट (साँचा)।

(दुनिया के बाशिंदे-१)

गुरुवार, 29 जनवरी 2015

हँसी

जबड़ों, खपच्चियों और चिट्टे
की चिपचिपी दुनिया से
पीछा छुड़ा कर
भागा
पैरों में जंगली बिल्लियों की तरह
दौड़ती सिहरनों से
उकत कर

बूढ़े की मुक्त हृदय कत्थई हँसी ने
एक खुले मैदान की ओर
बुलाया
मैंने अपने फेफड़ों में
ताज़ी हवा भरी
पर सब व्यर्थ …
हाँफता, फुर-फुर साँस लेता
बढ़ा
कंकरीली धरती के सहारे
आशा की ओर

मिट्टी से रिस रिस कर
भूत बढे मेरी ओर
ट्रकों की वेगवान गुर्राहटों
से लदी नदी के किनारे
डामर सी काली रात में
खाया उन्होंने मुझे;
नख से शिख तक कुछ भी न छोड़ा

बियाबान में कहीं
अभी भी हँस रहा
कोई बूढा
कत्थे में लिपटी खाँसती सी हँसी

रविवार, 18 जनवरी 2015

मुस्कुराहट

सवेरे के परदों
ने दिन को रास्ता दिया
और सूरज की रोशनी
धड़धड़ाती हुई उतर आई
टेबल से फर्श पर

दातुन, साबुन और किताबें गर्माहट पाकर
खुश से हो गए
परदे बाहर वाले पेड़ की पत्तियों
की भाँति
मचलना बंद कर चुके

ननिहाल के
गोबर नीपे फर्श पर बने
मांडणों सी
पारदर्शी, गोलमटोल आकृतियाँ
क्रीड़ाएँ करने लगीं
दृष्टिपटल पर

सुग्गों का एक जोड़ा
पिंजड़े का दरवाजा खुला पाकर
बिना मुझे साथ लिए ही
फट्ट-फट्ट कर उड़ गया

बलिश्त भर मुस्कुराहट
ताज सी आ बैठी उसकी
ठुड्डी पर
झड़ गए दो दर्ज़न सितारे
प्यार के मारे
दिन दहाड़े ही

(प्यार-३)

शनिवार, 3 जनवरी 2015

नरसिंह

गुरुत्वाकर्षण को धता बताकर
विषधरों की तरह उठती हैं
उसकी अयाल से लटें
हवा में
उसके मस्तक के चारों ओर

उसकी आँखों में है
उद्दंडता की आग
जो भस्मीभूत किये देता है
उसके विरोधियों को,
सही या गलत।

वो रहता है ज्वलंत
अज्ञान की पपड़ियों के ऊपर या नीचे
आवश्यकता की भित्ति के दोनों ओर
रोशनी के पटल पर
और अँधेरे की गहराइयों में
थार के रेगिस्तान में
और
मुल्तान की अमराइयों में
करता है विद्रोह
विपत्ति से
प्रकृति से

वो मार सकता है
हिरण्यकश्यप को
अंदर, बाहर,
दिन में, रात में,
मर्त्य बन, अमर्त्य बन,
जल, थल और नभ में --

अपनी गोदी में,
देहलीज पर रखकर भी

ब्रह्मा देखते ही रह जाते हैं
अपने चारों मुख टेढ़े किये-किये
अपनी मूर्खताओं का विकराल रक्तरंजित भंजन