शुक्रवार, 27 मार्च 2015

बचपन : १-४

१.
मामाजी 
सूरज की बची-खुची चमक को
आसमान ने घोंट दिया
अपने सलेटी लबादे में,
ओढ़ा दिया अँधेरा
छटपटाते हुए
गांवों, जंगलों और पहाड़ों को --
और डपटकर बोला,
"चुप्प करके सो जाओ अब,
एकदम चुप्प!"

२.
नहानघर
मूसलाधार वर्षा की हिंसा
के समक्ष घुटने टेक दिए
मिट्टी के घरोंदों और पुतलों ने,
शिलाचूर्ण का समाज बह गया
अपने ही दुराग्रह में
परत-दर-परत;

आवाज़ों के विस्तृत सिंचित भूभाग
की मिट्टी के हर दाने से
फट पड़ीं कोंपलें,
निकल पड़े काँटे।

३.
अकाल 
प्रेमबाई के घर के पिछवाड़े में
एक तालाब हुआ करता था
जो अब सामुदायिक टट्टीघर है।

कभी उस तालाब ने
मानसून के जोश में उफन कर
बहा दिया था कस्बे के एकमात्र सिनेमा हॉल को।
पाल की मिट्टी को झाड़ियों की जड़ों से काट
वह भाग निकला।
पीछे छोड़ गया
उघड़ी, फटेहाल धरती,
और हरा, काई भरा रुदन करते पेड़।

४.
डाम 
पुराने अस्पताल की पीली पुती
दीवारों पर
शनैः-शनैः काई की ज़िल्द चढ़ रही थी।
गगनचुम्बी नीम के पेड़ों से
हवा के चिड़चिड़े झोंकों के साथ
झड़ जाते कबूतरों के सैलाब
और पीली पत्तियों के झुण्ड…

पानी के छोटे से तालाब में छप-छप करना
बंद करके हमने निश्चय किया
पकड़नी ताली खेलने का।
सबकी हथेलियाँ नीचे की ओर थीं, मेरी ऊपर की ओर…
दूर से मम्मी अर्जुन की भांति जूता ताने दौड़ी आ रही थी,
डाम। 

गुरुवार, 19 मार्च 2015

सुरक्षा

पीवर लैदर का बैग सहलाते हुए अंकल
अचानक ठिठक कर पास की
दूकान का बोर्ड देखने लगे,
उत्सुकता और जिज्ञासा से …

नीम के पेड़ की पत्तियों के बीच घुसा
जंग लगा बोर्ड
साफ सुथरे तरीके से कुछ
कह नहीं पा रहा था,
सो अपनी जांघ के सहारे
एक ग़ायब-गूंगा ढोलक
बजाते हुए
झड़ती पत्तियों को घूरने लगे।

कुछ दूरी पर
फुटपाथ से उतर कर
असंख्य सूखी पत्तियों का मरघट
रुकी नाली के रिसाव में मिलकर
कीचड़ का रूप ले रहा था;
हर दो मिनट में
हंगामा मचाती सिटी बस
गोली की तरह निकलती,
कीचड को गिट्टी में बराबर कर जाती।

अंकल ने भयातुर होकर देखा
हरीतिमा के अस्थि-पंजरों का कुचला जाना;
अपनी ऐनक से
शोर, पसीना और निराशा पोंछकर
उन्हें एक बेहतर जगह पर
खड़ा होने का निश्चय किया
बस पकड़ने के लिए,
सुरक्षित महसूस करने के लिए।

(दुनिया के बाशिंदे-२)