शुक्रवार, 19 दिसंबर 2014

मन

वो देख रही है 
अभिभूत हो 
स्वप्नों के टुकड़ों
का किमेरा 

अंतरिक्ष के कोनों में 
सज गए हैं 
मोहब्बत में झुलसे हुए डामर के ड्रम, 
विचारमग्न बरगद के पेड़,
चट्टान सी सपाट भैंस की पीठ,
रेलमपेल, रंग और रुबाइयाँ 
गीत, ग़ज़लें और गाँजा 
झूले और झगड़े 
झाड़ पर टंगी होली पर फाड़ी गयी कमीज़
काई और कली से पुते गुम्बद
बारिश से धुली सड़क
और सवेरे के बन्दर 

पदार्थों और छायाओं की ओर झांकते,
विचित्रताओं के मेले में विचरते-विचरते
उसने छोड़ दी माँ की ऊँगली
और जाकर बैठ गयी
रेल के इंजन में
जहाँ दुनिया के नेता बने बनाये चित्रों में
रंग भर रहे हैं
महानता के निर्माण का शोर
बहरा करने पर आमादा है 
उसे प्रतिनिधियों की गतिविधियों का जीवित होना
पसंद आया है

"तुम्हारे पापा का नाम क्या है ?"
"पापा"
"तुम्हारी अम्मा का नाम क्या है ?"
"अम्मी"
"तुम कहाँ से कहाँ जा रहे हो ?"
"ननिहाल से घर"
कई मायनों में वह इस टेढ़े विश्व की
सच्ची बाशिंदी है।
(अम्मी को "बाशिंदे" का मतलब नही पता,
वो सर्दी में न नहाने के कारण बदबू मारते
उसके भाई को बाशिंदा कहती हैं )

पर यह सब घटित होता है
वास्तविकता की सलवटों में कहीं
गुप्त रूप से
अर्थहीनता के जंजाल के ठीक बाहर
उसके माँ-बाप पागलों की तरह
ढूँढ रहे हैं अपनी बच्ची का
मन

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