मंगलवार, 18 नवंबर 2014

आत्ममंथन

क्या क्या नही करते लोग
पाने के लिए शान्ति
मुक्ति चाहते हैं वो
अशांति से
जो मिली है उन्हें
उपहार में
अघ के आनंद के
सह उत्पाद सी

प्रयत्नरत हैं
घृणित कर्मों की
अंतहीन श्रृंखला के अंत में
कैसे जोड़ें एक नगीना
कि उसकी चकाचोंध में
अदृश्य हो जाये
ये पाप ईश्वर की दृष्टि में

फिर तो कर रहे वे
वृथा ही प्रयास
विश्व की आँखों पर तो
पहले से ही
डाल रखा है पर्दा
और, ईश्वर की अलौकिक ऑंखें
नहीं होती है चकाचोंध

जो बिना पावों के
चक्कर लगाता है ब्रह्माण्ड के
जो भोजन करता है बिना जीभ के
सुनता है बिना कान के
सूंघता है बिना नाक के
असीम है भौतिक क्षमताएं
कैसे प्रवंचित करोगे उसे

भूलो ये झूठे चोचले
स्वार्थ से पूर्ण परोपकार
झूठों से भरा पश्चाताप
भीड़ के समक्ष
बस एक बार झांको अंदर
अपने दामन के
स्वीकार लो समस्त पाप
स्वयं के समक्ष
बिना स्वयं के पक्ष में तर्क दिए
आत्ममंथन से गुजरो जरा

पर यही तो है
मुसीबत है, हो सकता ऐसा
तो जरुरत ही न पड़ती इसकी
स्वयं ही तो नही स्वीकार पाते
कि हम है दूषित
दुनिया के भरोसे तो हम पोत सकते हैं
कालिख पर भी कालिख
क्या देखती है ये
अंधी दुनिया
और
क्या ही है इसका न्याय
हमसे ही बनी है
हमारे जैसी है
काली कलूटी
आत्मसाक्षात्कार में
अक्षम
तभी तो शान्ति पाने के लिए
क्या क्या करते हैं लोग !

(पुरानी कविता है। )

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