सोमवार, 24 अक्तूबर 2016

उसूल

(कुछ दिनों पहले लिखी)

सड़क किनारे पगड़ी बांधे बुढऊ
अपने घुटनों पर कुहनियाँ रखे
करम पर हाथ बांधे
दूर बबूल की झाड़ियों में मूतते कुत्ते को देख रहें हैं
उनके मष्तिष्क में ख़याल कौंधता है
मुसलमान बड़े बढ़ गए हैं आजकल
उनकी चौधराहट छंटती है गाँव में
उनके लड़के जब बाहर निकलते हैं
तो बहु बेटियों को अन्दर टोरना पड़ता है
अगर उनकी लड़की ने किसी मुसलमान के हाथों मुँह काला करा लिया
तो पहले वे उस रांड का गला काटेंगे और फिर अपनी कलाई
(पर ऐसा होगा नहीं, उन्हें भरोसा है)

सड़क के दूसरी ओर
एक दढ़ियल प्रौढ़ लुंगी-टोपी पहने बैठा है उकडू
इन्हें चुरू जाना है, उन्हें बीकानेर
उसके गाँव में हिन्दू बड़े उछलते हैं आजकल
सभ्य-असभ्य, सही-ग़लत की लकड़ियाँ लिए घुमते हैं गुंडई में
वो भी अपनी बेटी का गला काट देगा
अगर उसने एक हिन्दू से शादी की
और कूद जाएगा ज़िन्नात वाले कूएँ में
(पर ऐसा होगा नहीं, उसे भरोसा है)

ये दोनों परिचित हैं एक दूसरे के "उसूलों" और रसूख़ से

पर ये शून्य की गोद भरती, गोद उलीचती संख्याएँ नहीं हैं
जो नफ़रत से नफ़रत को
कष्ट से कष्ट को काटकर शून्य में विलीन हो जाएँ

नहीं

उनके विचारों और "उसूलों" में दिशा है
और ये सदिश राशियाँ एक दुसरे से घुलतीं हैं, मिलतीं हैं
प्राचीन परकोटों से सर फोड़ते बुड्ढों की मिली जुली ताक़तों से
रस्ते नहीं बनते
बनते हैं कारागार
ऊटपटांग खम्भों वाले महल
शीशे के जननांगों वाले पुरुष और स्त्री
जो जन्म देते हैं पारदर्शी, सुघड़ समाजों को
जो किसी भी प्रकार से बदलने से साफ़-साफ़ मुकर गए हैं