गुरुवार, 25 अगस्त 2016

दिनचर्या

हम देखते हैं, आँखों में वितृष्णा भरे
धड़धड़ाती रेलों को, डूबते पुलों को, उठते पहाड़ों को
शांति चाहते हैं, गड़गड़ाहट के अंत में
उसके इंतज़ार में
स्कूटर के पायदान पर बैठकर
अकर्मण्य हो झांकते है
शनिवार सुबह ग्यारह बजे के
तरल निद्रालू यातायात में
जहाँ छोड़ दिए थे मुट्ठी भर भूत
कुछ मिनट पहले
वो नहीं सुनेंगे किसी रखवाली की मनुहार
दौड़ते रहेंगे वीथियों और मुंडेरों पर
रात होने तक
वो सड़क पार करेंगे
सांय-सांय करके निकल जाने वाले वाहनों को छूते हुए
एक दूसरे के हाथ पकड़े
ताकते रहेंगे फिल्मों के आसमान से भी बड़े पोस्टरों को
घंटों