मंगलवार, 21 फ़रवरी 2017

वैदिक विज्ञान और आधुनिक विज्ञान की तुलना एक फेसबुकीय बहस

फेसबुक पर मैंने हो कागलो एक नाम के इन्सान (जिसका राजस्थान में अर्थ है, "एक कव्वा था") का ये स्टेटस देखा और मुझे लगा कि उसपर बहस होनी चाहिए. बंदा सज्जन है वर्ना इतनी गहरी बहस के बाद लोग काफी "असहिष्णु" हो जाते हैं. पर मेरे परिप्रेक्ष्य में ये विचारधारा छद्म विज्ञान है जो कि प्रकृति में, खासकर हमारे देश में, "वायरल" है. हो कागलो एक के हिसाब से ऐसा नहीं है सो ध्यान रखें, हो सकता है, रैंडम इंसान, आप उनसे सहमति प्रकट करें.
विचार यह है कि भारतीय पुरातन विज्ञान विश्व को समझने के लिए आधुनिक विज्ञान की तुलना में कितना कारगर हो सकता है.

"हो कागलो एक" का स्टेटस

अगर सब कुछ ऊर्जा ही है तो पद-अर्थ क्या है !
( if everything is energy then whats the matter ? )
जबकि सबकुछ ऊर्जा है और नियमबद्ध है ,
तब यह आसानी से समझा जा सकता है
कि प्रत्येक फोटोन ( प्रकाश की एक ज्ञात इकाई ) , प्रत्येक अणु परमाणु ( पदार्थ की एक ज्ञात इकाई ) , प्रत्येक अन्य द्रव्य इकाई नियमानुसार ही गति करती है और नियम अनुसार ही बंधती विलगति है तो ये सबकुछ जो दृश्यमान है और इसके इतर भी जो कुछ जानकारी में आता है वो सबकुछ किसी स्वचालित यंत्र की भाँति कार्य कर रहा है ।
ये पूरा का पूरा सृष्टि तंत्र जो अथाह ऊर्जा और असीम द्रव्य समेटे अथाह गहराई और अनंत दूरियों तक विस्तृत है , कुछ गिनती भर या शायद अनगिनत नियमों से आबद्ध एक बंद तंत्र है जिसमें कोई भी भीतरी या बाहरी परिवर्तन संभव नहीं है और इसकी गति एक तय गति है चाहे वो पाई के दशमलव प्रसार की तरह कितनी ही अबूझ या एक मक्खी की उड़ान की तरह कितनी ही क्लिष्ट क्यों ना हो । जबकि यह सबकुछ किसी यंत्र की तरह है जो तय नियमों से आबद्ध है और यहाँ इस तंत्र से अन्य कुछ भी नहीं है तो जो कुछ ज्ञान या बुद्धि के प्रकाश में आता है वो भी मात्र एक चलचित्र की भाँति वर्त रहा है और उसका मान सिवाय इसके कि आप इस दृश्य में कितने आसक्त हो और कुछ भी नहीं है ।
जबकि यह पूरा तंत्र विज्ञानमय ही है अतः अपरिमित योग संयोगों के उपरान्त भी इसका प्रत्येक दृश्य और इसकी गति तयशुदा ही होगी जो कि इसे समझ पाने की स्थिति में अनुमानगम्य भी होगी और गतिमान होने के उपरान्त भी स्थिर ( या स्थिरगतिज ) कहलाएगी ।
जबकि विज्ञान का होना और किसी भी बाह्य कर्ता का ना होना स्वयंमेव प्रमाण है कि यह सृष्टि मात्र किसी पूर्वघटित या पुनःपुनर्घटित होते रहने वाले एक चलचित्र के अतिरिक्त कुछ भी नहीं तो फिर मुझे बताइये --
किस तरह वर्तमान विज्ञान भारतीय वेद ज्योतिष पुराण और इतिहास से बेहतर है ? ( वहाँ यह सबकुछ लिखा है जिसका विज्ञान की संपूर्णता में निष्कर्ष निकलता है । )
किस तरह वो विज्ञान जो अपने साथ उसे प्रयोग में लाये जाने के धर्म से विहीन ( बिना precautions , guidelines और laws के ) है भारतीय पुराविज्ञान से बेहतर है ?
किस तरह उन तत्वों से जो हमारी देह और हमारे पर्यावरण में स्वतः दृष्टिगोचर होते हैं से तत्व की वो परिभाषाएं बेहतर मान ली गयी जो अत्यधिक प्रयासों के बाद कहीं मुश्किल से दृष्टि में आते हैं और जिनके दर्शन के लिए भी उन साधनों की आवश्यकता पड़ती है जो स्वयं भी कृत्रिम है और जिनमें से कुछ सुस्थिर भी नहीं ।
क्या कोई बताएगा वो किस तरह बेहतर हैं और बेहतर की उनकी परिभाषा क्या है ।
#कागलो_बोल्यो

मेरा कमेंट:

१. सब गति तय नहीं होती और सब घटनाएँ निर्धारित नहीं होती. नियम हैं तो अनिश्चितताएँ भी हैं.
२. सृष्टि पूर्वघटित या पुनःघटित है ऐसा सिद्ध नहीं हुआ है. यह एक वैज्ञानिक थ्योरी भी नहीं है, हॉकिंग ने उस विचार को संभावनाओं में शामिल किया है पर उसे सिद्ध करने का कोई तरीका नहीं है. क्योंकि मात्रा अनंत हो सकती है, संभावनाएं भी अनंत हो सकती हैं. आप यह नहीं मान सकते कि सम्भावनाएं ख़त्म होने पर घटनाओं को स्वयं को दोहराना होगा.
३. पुराणों में विचारों का नयापन अपने समय के हिसाब से बहुत अच्छा था जिसको आप अधिक से अधिक दाविन्ची और न्यूटन से compare कर सकते हैं. उन विचारों को किसी ने सिद्ध नहीं किया, extrapolate नहीं किया. वर्तमान विज्ञान ने हर परिस्थिति और विचार के लिए testable hypothesis विकसित किये हैं, जिनपर प्रयोग करके उन्हें सिद्ध किया जा सकता है. स्पष्ट है कि उस समय ऐसा करने के लिए उपकरण और वैश्विक वार्तालाप नहीं थे पर इस आधार पर किसी भी तरीके को छूट नहीं मिलेगी.
४. तत्वों की परिभाषा करने के लिए यह महत्वपूर्ण नहीं है कि वो दृष्टि के लिए कितने सुगम हैं. तत्व की सही परिभाषा वो है जहाँ वो अन्य तत्वों से पूर्णतया भिन्न है और एक स्वतंत्र चर की तरह प्रयुक्त किया जा सकता है. सामान्य दृष्टि में इनको समझना जरुरी है पर उसके लिए पुरातन परिभाषाएँ स्वीकार करना आवश्यक नहीं, बस तत्वों के स्थान पर एक दूसरे पर निर्भर रहने वाले तत्व-तंत्र के रूप में चीज़ों को समझाया जा सकता है. विज्ञान में उसका उपयोग सीमित है.
५. "जिनके दर्शन के लिए भी उन साधनों की आवश्यकता पड़ती है जो स्वयं भी कृत्रिम है और जिनमें से कुछ सुस्थिर भी नहीं" -- कृत्रिम से आपका क्या मतलब है? हमारी आंख कृत्रिम नहीं है? सूक्ष्मदर्शी कृत्रिम है? कैसे? सूक्ष्मदर्शी कोशिका विज्ञान में इसलिए बेहतर है क्योंकि हम घटना के स्तर पर जा कर देख सकते हैं कि क्या हो रहा है. यदि कोई व्यक्ति यह पता करना चाहता है कि किसी जीव की जनसँख्या पर्यावरण से कैसे व्यवहार करती है तो सूक्ष्मदर्शी उसके लिए किसी काम की नहीं. विज्ञान में बेहतर और कमतर सिर्फ़ परिप्रेक्ष्य की उपयुक्तता के आधार पर निर्धारित होता है, कृत्रिम-प्राकृतिक के आधार पर नहीं, जो कि ironically अपने आप में एक कृत्रिम आधार है, हमने बना लिया है.
६. पुरातन विज्ञान का वो हिस्सा जो सैद्धांतिक रूप से सही है पुनः सिद्ध किया जाना चाहिए और उपयोग में लाया जाना चाहिए. पर पदार्थ का अध्यात्मिक आयाम मेरे विचार में इंसान की wishful thinking है जो किसी काम की नहीं है.
७. धर्म से आप शायद नैतिकता की बात कर रहें हैं. मेरे विचार में धर्म ने जबरदस्ती अपने आपको नैतिकता के प्रवर्तक के रूप में थोप रखा है. नैतिकता commensalism (साथ में कुछ अन्य घटनाक्रम भी) के कारण हमारे survival के लिए महत्वपूर्ण बनी और धर्म ने उसको "वायरल" कर दिया. नैतिक होने या नई खोज की नैतिकता को समझने के लिए पोथों की ज़रूरत नहीं है, यह समझने की ज़रूरत है कि हमारे समाज के बनने और फ़ैलने का उद्देश्य क्या है? समाज व्यक्ति को क्या उपलब्ध करवाता है और क्या अपेक्षा रखता है. साथ ही भविष्य में इन चरों में क्या जुड़ेगा. बस.


हो कागलो एक का उत्तर
जबकि सृष्टि विज्ञान मात्र हो तो सब कुछ के नियम् होंगे और अनिश्चितताएं भी मात्र उनका संयोग होंगी जिनकी प्रायिक्तायें और क्रमबद्धता भी तय होंगी भले ही वो इतनी वृहत और विस्तृत हों कि हम ना जान सकें ।
2 . मैंने निष्कर्ष की एक सम्भावना पर बात की है अन्य को ख़त्म नहीं माना है ।
3 . खुद मनुष्य से बेहतर कौनसा उपकरण है ? और किस तरह कहा जा सकता है कि उन्हें किसी ने सिद्ध नहीं किया , क्या किसी बात को सिद्ध करने के अभिनके तरीके ही सिद्ध हैं उस समय के नहीं , और क्या उस समय के बारे में हमें सबकुछ पता है ? क्या कुछ भी लुप्त या नष्ट नहीं किया गया होगा ?
4 . बात सिर्फ दृष्टि की सुगमता की नहीं है । प्यास लगती है तो पानी से बुझती है , जिन आकाश वायु अग्नि जल पृथ्वी आदि को तत्व माना गया उनके अनुसार हमारी जीव संरचनाएं भी विकसित होती हैं । उदाहरणार्थ आकाश के गुण शब्द के लिए कान और कंठ , वायु के गुण स्पर्श और गति के लिए त्वचा और पैर् , अग्नि के गुण रूप के लिए आँख और हाथ , जल के गुण रस के लिए रसना और उपस्थ तथा पृथ्वी के गुण गंध के लिए घ्राण और गुदा । और हमारे अंग भी उसी क्रम और रचना की सहजता में होते हैं जो प्रकृति में सहज ही दृष्टि गोचर होते हैं ... क्रमशः


मेरा उत्तर
१. पुनः कहूँगा, सभी अनिश्चितताओं में नियम निहित नहीं होते. दृष्टिगोचर विश्व में ऐसा प्रतीत होता है क्योंकि प्रयिकताएँ पूरी तरह से समान नहीं हो पाती और क्रमबद्धता तय हो जाती है. इलेक्ट्रान ट्रांजीशन जैसी घटना में समान संभावनाएं हो सकतीं हैं. यह इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि आप आगे इसे assumption की तरह काम ले रहे हैं. यदि शून्य समय पर विश्व को फिर से शुरू किया जाए तो बहुत संभव है कि उसकी गति पूर्णतया भिन्न हो.
2. "जबकि विज्ञान का होना और किसी भी बाह्य कर्ता का ना होना स्वयंमेव प्रमाण है कि यह सृष्टि मात्र किसी पूर्वघटित या पुनःपुनर्घटित होते रहने वाले एक चलचित्र के अतिरिक्त कुछ भी नहीं" -- आपने अन्य को ख़त्म माना है
३. "खुद मनुष्य से बेहतर कौनसा उपकरण है?" कविता के लिहाज़ से ये काफी अच्छी पंक्ति है पर विज्ञान के लिहाज़ से बिल्कुल भी नहीं. क्लिष्टता बेहतर होने का लक्षण है ऐसा बहुत लोग मानते हैं और ये भाव बिल्कुल ग़लत है, क्रमिक विकास की ग़लत व्याख्या का कारण बनता है.
हमारी दृष्टि, स्पर्श, श्रवण, आवाज़ बहुत ही सीमित स्पेक्ट्रम वाले हैं. हमारी प्रोसेसिंग यूनिट शानदार है ये अलग बात है.
"उन्होंने सिद्ध किया होगा, हमें क्या पता" वही भाव है जो कई लोगों के ईश्वर को नकार न पाने का कारण है. हो सकता है सिद्ध किया हो के आधार पर सिद्धांत को नहीं माना जा सकता. प्रयोग और प्रपत्ति के लिए सबसे महत्वपूर्ण है परिणाम का पुनरुत्पादन. यदि प्राचीन वैचारिक गल्प को testable hypothesis में तोड़ कर पुनः सिद्ध कर दिया जाए तो कोई मूर्ख उसका प्रतिवाद नहीं करेगा. अन्यथा, "वेदों में सब बदा है" को कोई नहीं मानेगा
४. यहाँ भी, "प्यास लगती है तो पानी से बुझती है" ज्ञान की प्यास? साधारण प्यास? क्या है प्यास? क्या है पानी? प्रायिकता और क्रमबद्धता जैसे सूक्ष्म सिद्धांतों को आप प्यास जैसी मोटी (broad) घटना से समझेंगे? किसी कोशिका से सम्बद्ध प्रश्न का उत्तर किसी ने सूक्ष्मदर्शी से दिया है, खुरदरेपन का सुबूत एटॉमिक फ़ोर्स से दिया है तो आप उसको न मानकर अपनी आंख प्रयुक्त करने की कोशिश करेंगे?
अंग हमारे पर्यावरण के हिसाब से विकसित हुए हैं ये आप समझते हैं ये काफी अच्छी बात है पर उनके जो कारण आपने बताए हैं वो काफी ग़लत हैं. जिन चीज़ों को हम स्पर्श करते हैं, सूंघते हैं, देखकर पहचानते हैं या चखते हैं वे इन सभी तत्व-तंत्रों में फैलें हैं. किसी एक के हिसाब से एक अंग विकसित नहीं हुआ है. सिर्फ़ वैचारिक-तार्किक-भाषिक आधार पर माने जाने के कारण ये बातें निराधार हैं. वास्तव में पुरुष और प्रकृति को सामान्य विश्व में अलग करके, केवल अध्यात्मिक विश्व में एकाकार मानकर दर्शन ने पूरी कौम को ग़लत रास्ते पर डाल दिया है. जो प्रकृति में सहज दृष्टिगोचर होता है हमारे अंग उस रचना में ढले हैं क्योंकि हम उसके साथ ही विकसित हुए हैं, उसी के भाग बनकर. ये धार्मिक दर्शन का induce किया हुआ दोहरापन है जो हम लादे चलते हैं.
--- लिखते चलिए, जब तक बन पड़ेगा जवाब दूँगा.




हो कागलो एक का उत्तर
शून्य से शुरू होने पर जो भी सृष्टि बनेगी वो संयोगो के क्रमचयों में से ही कोई एक तस्वीर होगी । भले ये भी अनंत के तुल्य हो । बात ये नहीं कि जानी जाएगी या नहीं पर तय होगी । उसमें पुरुषार्थ द्वारा बदलाव की कोई सम्भावना नहीं हो सकती ।
2 . मैंने अन्य को ख़त्म नहीं माना , बल्कि सभी संभावनाओं को पूर्व घटित कहा है , कहने का अर्थ कि यदि विज्ञान ही सबकुछ है तो वो पूर्वघटित की अनंत संभव स्थितियों में से कोई एक स्थिति होगी पर किसी ऑटोमैटिक मशीन की तरह अपने निश्चित प्रोग्राम पर चलेगी । और स्थित संभावनाओं के समुच्चय से बाहर जा पाना जिसके output के लिए संभव नहीं ।
हमारे perception सीमित स्पेक्ट्रम वाले हैं जब तक कि उन्हें विकसित ना किया जाए ।
मनुष्य से बेहतर कौनसा उपकरण है पंक्ति कविता के लिहाज से बेहतर लगी उसका शुक्रिया , पर यह विज्ञान के हिसाब से अच्छी नहीं बेहद अच्छी पंक्ति है , वर्ना अब तक वो आर्टिफीसियल मनुष्य बना चुके होते ।
क्लिष्टता को मैंने बेहतर होने का लक्षण नहीं कहा , आधुनिक रसायन और भौतिकी से क्लिष्ट तो क्या होगा ।
" उन्होंने सिद्ध किया होगा हमें क्या पता " ये मेरा भाव नहीं , बात सिद्ध ना माने जाने के उस भाव की है जिसकी सिद्धि का आधार् भी आधुनिक विधियाँ हैं ।
प्यास लगती है पानी से बुझती है में पानी महत्त्व का है । खैर , मोटी घटना है आपके हिसाब से महत्वहीन होगी ।
किसी एक के हिसाब से एक अंग विकसित नहीं हुआ , पूरी देह एक साथ ही विकसित हुई , पर वो अंग उन तत्वों के लिए ही विक्सित हुए जो सहजता में मूल तत्व हैं ।

मसलन आकाश के गुण शब्द के लिए कंठ ऊपर है नीचे वायु के लिए फेफड़े और नीचे अग्नि से संबद्ध पाचन तंत्र जल और पृथ्वी से संबद्ध मल मूत्र के त्याग के लिए बने अंग ।
पृथ्वी जल अग्नि वायु आकाश मन बुद्धि और अहंकार के प्रभाव केंद्र देह में स्पष्ट ही नीचे से ऊपर व्यवस्थित हैं , पर जैसे सृष्टि में सबकुछ इनके घुलने मिलने से बना है वैसे ही देह भी , तो पूरी देह ही इन तत्वों से बनी है । खैर ये सब चीजें बहुत डिटेल में हैं और एक पूरा विज्ञान है जो इस संदर्भ में महत्वपूर्ण है जिस तरह संरचनाएं स्वतः विक्सित हुयी हैं उनका मैनीपुलेशन भी उसी तरह बेहतर हो सकता है ।
पुरुष प्रकृति को अलग नहीं किया गया है , बल्कि नर में पुरुष तत्व का मात्रात्मक अनुपात और नारी में प्रकृति तत्व का मात्रात्मक अनुपात अधिक बताया गया है। सबकुछ प्रकृति पुरुष के संयोग से बना बताया गया है ।


मेरा उत्तर
"सबकुछ प्रकृति पुरुष के संयोग से बना बताया गया है" कहना किस प्रकार सही है? पुरुष प्रकृति से भिन्न नहीं है और न ही उसकी भौतिकी भिन्न है. सिर्फ़ परिप्रक्ष्य के लिए बर्तन प्रस्तुत करने वाला बुद्धिमान तंत्र होने से हमारे दर्शन में उसे जगह मिली है. दूसरे, नर और मादा में मूल रूप में क्या भिन्न है? x और y क्रोमोजोम? दोनों का आणविक विन्यास भी उन्हीं नुक्लियोटाइड से बना है जिनसे शेष जीनोम. सबकुछ प्रकृति का स्वतन्त्र विकास है और कुछ नहीं.
इस सम्बन्ध में इस बात को सच माना जा सकता है कि संभावनाओं का (अनंत?) समुच्चय सीमित नियमों पर काम करता है और "पुरुषार्थ" से कुछ बदला नहीं जा सकता है. उसमें समस्या यह है कि हम पुरुष को मुक्त इच्छा वाला मान रहें हैं. पर वह प्रकृति का हिस्सा है जो स्वतन्त्र रूप से विकसित होता है और निश्चित रूप से होने वाले को बदल सकता है. पर वह सम्भावना समुच्चय के बाहर नहीं जायेगा ये बिल्कुल सत्य है.

"क्लिष्टता को मैंने बेहतर होने का लक्षण नहीं कहा" जबकि आप उससे ठीक पहले कहते हैं कि मनुष्य बेहतर उपकरण है अन्यथा कृत्रिम मनुष्य बना चुके होते. जो कि सीधे सीधे मनुष्य की क्लिष्टता की ओर इंगित करता है. हमारे perception कितना भी विकसित करने पर अपनी सीमाएं पार नहीं कर पाएंगे क्योंकि वो एक सीमित और ख़ास वातावरण में विकसित हुए. संभव है कि x-रे से लदे वातावरण में दृष्टि कुछ भिन्न होती और जीनोम किसी और चीज़ का बना होता. उस हाल में उसकी कुछ अलग सीमाएं होतीं जो, पुनः, कितना भी कोशिश करने पर नहीं लांघी जा सकती. क्योंकि जब एक क्लिष्ट तंत्र विकसित होता है तो वो सभी संभव परिस्थितियों के हिसाब से विकसित नहीं होता. और हम जब पुनरुत्पादन न करने वाली "मशीन" बनाते हैं तो हम उस सीमा को लांघते हैं. मतलब उनके बिना हमारा perception पंगु है, अधूरा है.
न तो वैदिक "विज्ञान" इन सीमाओं को लांघने में कामयाब होता है, न ही लांघने का पर्याप्त सैद्धांतिक आधार (सम्भावना समुच्चय का गणितीय विवेचन) देता है.
प्यास को मोटी घटना कहना "महत्वहीन" कहने जैसा लगेगा इसीलिए मैंने "broad" लिखा था. मेरे कहने का मतलब है की जब कम चरों वाले सूक्ष्म कारकों पर आप विचार कर रहें हैं तो अधिक चरों और विशाल फैलाव वाली broad घटनाओं का उदाहरण देना उपयुक्त नहीं है. न तो उनका "उपमा" के रूप में कोई प्रभाव है, न ही समस्या को सुलझाने की क्षमता. जैसा मैंने कहा, उपकरण या समाधान समस्या के फैलाव के आधार पर बेहतर या कमतर होते हैं, न तो सूक्ष्म बेहतर है न ही क्लिष्ट.

"जिसकी सिद्धि का आधार् भी आधुनिक विधियाँ हैं", आधुनिक विधियों से ज्ञात हुआ इसलिए सिद्ध नहीं माना जाता, बल्कि आधुनिक विधियाँ इसलिए विकसित की गयीं हैं ताकि जो पुराने सीमित perception वाले तरीकों से test न किया जा सका, उस पर प्रयोग किये जा सकें. (ये तो सीधा सीधा प्रभाव और कारण का कन्फ्यूज़न है)
"एक पूरा विज्ञान है जो इस संदर्भ में महत्वपूर्ण है" और उस विज्ञान को ढंग से न देखने या सीमित perception से देखने के कारण ही ऐसा छद्म-विज्ञान जन्म लेता है, जो आपने शायद हमारे ग्रंथों से सही ढंग से ही उद्धृत किया हो. आकाश, पृथ्वी, वायु, अग्नि के साथ बेमतलब के गुण जोड़ दिए गए हैं जो उनसे कोई भिन्न वास्ता नहीं रखते. उदाहरण के लिए आकाश में शब्द. शब्द का एक अहम् हिस्सा ध्वनि है जो जल और ठोस (पृथ्वी?) में बेहतर चलता है और अन्य जानवरों द्वारा perceive भी किया जाता है (इस प्रसंग में उनके उपकरण बेहतर हैं). मष्तिष्क की कोशिकाएं उससे सम्बद्ध विचार को जन्म देंगी जो ions से बना होता है (जिसे समझने में तत्व तंत्रों का वैदिक विचार, वर्तमान प्रसंग में बुरी तरह से अक्षम है, पृथ्वी कहेगा - अहंकार उसी जगह उत्पन्न होगा जिसके अपने आप में कई भाग हैं). मन और बुद्धि, पुनः हमारे आन्तरिक पारिस्थितिकी तंत्र के "तत्व-तंत्र" हुए जो इसी प्रकार ज्यादा उपयुक्त तत्वों में तोड़े जा सकते हैं, और मेरे आस पास ही कई लोग उसकी समझ को बड़ी तेज़ी से आगे बढ़ा रहें हैं.
तत्पश्चात वायु का वास्ता फेफड़ों से आगे बहुत गहरा है. यहाँ से "देह पंचतत्वों के मिलने से बनी है" सही तो साबित हो जाता है पर आपको cerebral अंगिका का उदहारण देखना चाहिए जहाँ यही सब अंगों के एक ढेर में तब्दील हो जाता है. वहां भी ये वाक्य सही तो साबित होगा पर कोई उपकरण तैयार नहीं होगा. कारण ये कि तत्वों और तत्व-तंत्रों का घुलना मिलना बहुत सूक्ष्म और नियंत्रित होता है, जिसको अग्नि-वायु... इत्यादि वाले विभाजन से नहीं समझा जा सकता.

लब्बेलुआब यह कि हमारे पोथों ने बहुत अच्छी कोशिश की है प्रकृति को समझने की और यदि भेड़ों की तरह कर्मकांडों में खोने की जगह हम उन्हें आलोचना की नज़र से देखते और उनकी सीमितताओं को नवीन विचारों से लांघने की कोशिश करते तो तो वाकई हमारा विज्ञान आधुनिक होता. इसमें वर्तमान विज्ञान से कोई भेद नहीं होता, क्योंकि दोनों एक ही चीज़ होते. पर ऐसा नहीं है. पुराना ज्ञान cerebral अंगिका की भांति सिद्धांतों का धर रह गया, सृष्टि को समझने का, सीमाओं को लांघने का उपकरण नहीं बना. और हम अगर इसी प्रकार पुराने सीमित विचारों की नए बहुमुखी विचारों से निराधार तुलना करेंगे तो कोई पुराना अनजाना, अपरिष्कृत विचार पूर्ण होकर सामने नहीं आ पायेगा, क्योंकि हम उसकी सीमितताओं को मानने को तैयार ही नहीं हैं.

मेरी ओर से इति, क्योंकि हमारा मूलभूत भिन्न विचार मेरे ख्याल से हमें मिल गया है और इस माध्यम से सुलझाया नहीं जा सकता, सहमति पर पहुँचाया नहीं जा सकता है.
पुनश्च, थोड़े कड़े शब्दों में, वैदिक ज्ञान को विज्ञान के केंद्र पर स्थापित करने के दिन लद चुके हैं क्योंकि हमने स्वतंत्रता के बाद विज्ञान से इतर मुद्दों पर ध्यान दिया और संभव है कि वही विचार अरब होकर यूरोप पहुंचे जहाँ उनकी पूजा करने की बजाय लोगों ने उन्हें परखा और कुछ नवीन और सक्षम विकसित किया. कोलोनियल कपट के शिकार होने के दुराग्रह को छोड़ कर हमें नए विज्ञान में कमर कस कर वैश्विक समाज के साथ योगदान देना चाहिए. हो सके तो हम शोध करें कि वैदिक विचार किस समय विकसित हुए और ठीक ठीक कैसे यूरोप तक पहुंचे ताकि हम वर्तमान विज्ञान के भुलाए हुए आधार के लिए कुछ आदर बचा पाएं.

उम्मीद है आपसे अन्य विषयों पर बहस होगी. इस उत्तर पर आपके विचार को ढंग से अवश्य पढूंगा.

परन्तु मेरी ओर से इति.


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यहाँ उपरोक्त बहस को मैंने ख़त्म माना है पर यदि कोई नया विचार वे प्रकट करते हैं और मुझे ज्ञात होता है, समय मिलता है तो अवश्य अपडेट करूँगा.



रविवार, 19 फ़रवरी 2017

चन्द्रकला

स्पर्श
सुबह का चुभता दूधिया उजलापन
मेरे फ़र्श पर
किताबों और कपड़ों के बिखराव में
ऊंघ रहा है
मेरी ठुड्डी से नीचे की ओर हाथ फेरता,
घिसता हुआ लुप्त हो जाता है
मेरे उदर तक पहुंचते-पहुंचते

प्रत्युत्तर
उसने अपनी गहरी काली आँखों से
भावनाहीन होकर मुझे देखा, और,

“क्या तुम मुझसे प्यार करते हो?”
“क्या तुम मुझसे प्यार करती हो?”
की कागज़ी दीवारों में
छेद हो गए
उनसे रक्त बहने लगा, हमारे शरीरों के सहारे
जो जम जायेगा धीरे-धीरे
और जिसे झाड़ना होगा बहुत मुश्किल

शर्त
क्योंकि यह महत्त्वपूर्ण नहीं है कि
मैं तुमसे प्यार करता हूँ
या तुम मुझसे प्यार करती हो
और हम आमरण/आजीवन साथ रहें

महत्वपूर्ण यह है कि
रात भर रक्त में नहाएं हम एक दूसरे को बिना देखे
और बलि चढ़ाई जाये हमारी सुबह
देवताओं और भगवानों को

शह
रंगीन बादल हवाओं के दामन में लेटे-लिपटे
धरतीवालों का मुजरा देख रहें हैं
सांझ की गंध फड़फड़ाती हुई आती है
और मेरे आग़ोश से तुम्हारे न होने की गंध को
चोरों की तरह ले भागती है
आज मातम है
आज मृत्यु है
जिधर देखो उधर फैली हुई

मैं तुम्हें बताता हूँ
तुम तोप के गोले से प्रश्न दागा करती हो
भला मैं जानता भी हूँ कि मुहब्बत क्या होती है?
मैं तुम्हें बताता हूँ

हम अपनी ख़यालों की दूरबीनें अदल-बदल कर लेते हैं
और भूल जातें हैं कि कौनसी किसकी थी
अतिदूरस्थ स्वप्नों को देखते हैं दोनों
इस भ्रान्ति में खोये, कि दोनों में से एक से तो
भविष्य अवश्य दिखेगा
मैं तुम्हें बताता हूँ
हम एक दूसरे के शरीरों में अपनी नाक घुसेड़कर
कोई रास्ता ढूँढने की कोशिश करते हैं
ताकि एक दूसरे के और क़रीब पहुँच सकें
पर भटकते-भटकते इतस्ततः, पहुँच जाते हैं
अपनी ही पीठ में

मैं तुम्हें बताता हूँ
हम जो कर रहें हैं
वो वही है

प्रहार
मैं तुम्हारी उदासी पर लिख रहा था
धागे गूंथ रहा था तुम्हारी ख़ामोशी में से

तुम फिच्च से हँस दीं
घुटे-पिसे लफ़्ज़ों की एक उतावली धारा
थूक दी तुमने
और तोड़ दी मेरी कविता



(यात्रा पत्रिका में "चंद्रकला" श्रृंखला की चार कविताएँ प्रकाशित हुईं थीं. शेष यहाँ पोस्ट कर रहा हूँ, जो नहीं हुई; अब देख कर समझ आता है क्यों नहीं हुईं.)