रविवार, 3 दिसंबर 2017

फैरो

वहाँ गाँव के बाहर
धोरों के बीच टट्टी करते बुड्ढे का सर
किसी ने दग्गड़ से कुचल दिया
शिनाख्त नहीं कर पाए उसके नज़दीकी रिश्तेदार

रेबीज़ से सनके कुत्तों का झुण्ड
बावला हुआ सड़क से उतर गौशाला के पास
घाटी में गहरे उतर गया
उनकी लाशें कई किलोमीटरतक छितराईं पायी जायेंगी
फूली, गंधाती

धोरे पर बबूलों के झुरमुट
और गन्दगी के ढेरों के बीच कोई लोमड़ी
क्रोध भरी हूक रही है

सुबह सेना के काफिले के आख़िरी ट्रक के निकलने से पहले
एक हिरण धैर्य खो बैठा
चीलें उसके अंतरंगों को कई दिन खाएंगी
उसके हड्डी और चमड़े के ओरीगामी में बदल जाने तक

चींटियों के नगर पर पपड़ियाई भूमि पर
चींटियाँ फिरतीं हैं कूदती फाँदतीं
किसी फैरो की तरह चमकती स्वर्णिम देह लिए
एक समाज में रहने में निष्णात

राजधानियों के लोग यहाँ की तस्वीरें देख कर नाक भौं सिकोड़ते हैं
और कहते हैं कि कोई जीना सिखाओ इन गवारों को.

मंगलवार, 21 नवंबर 2017

कठोर

रेत और ठण्ड ने यहाँ की रातों के चेहरे
कठोर कर दिए हैं
उनमें धोरों की छाहें और बादलों की सलवटें हैं
उनकी आँखों में सितारों की साफ़-सुथरी झिलमिलाहट है
पथरीली राहों पर वो बिछातीं हैं प्रलय का शोर
और छोटे मोटे झरने
लबालब नदियों का खालीपन उनकी आँखों से बहता है
इस्पात के जंजाल में उनकी खनखनाती हँसी

अन्धकार में घिसटते विस्थापितों से विमुख वो
चाँद का दीर्घ निःश्वास छोड़तीं हैं
वो अपने शरणार्थियों
को पुचकार कर बुलातीं नहीं हैं
बस देखतीं रहतीं हैं भावहीन
जैसे कोई देखता है किसी रेल के जाने को
जिसमें उसे चढ़ना नहीं है

शुक्रवार, 17 नवंबर 2017

बकरी के लिए रसगुल्ले


हिनहिनाते हुए स्कैनर्स
तेज, गोल मटोल और दक्षिण को झुके हुए
खुली अलमारियों में
इतिहास की घोड़ेदार किताबें
जैसे कोई छुई-मुई


बारह बहियाँ, दो सौ पेट
अपने में ब्रह्माण्ड समेट

नहींनहीं
येक्यालिखदिया
फिरसेलिखनापड़ेगा

तेज, गोल मटोल और दक्षिण को झुके हुए
गुम्बदों के भाल पर चीथड़े सूखे हुए
स्कैनर्स -- हिनहिनाए
भरा गुड़कता लोटा, खोट समेत ही लौटा
उसकी धृष्टता पर हमें खेद है
पर इसमें रेल का देरी से चलना कारण नहीं है
हटाओयारकुछऔरलिखतेहैं
साक्षात् अल्ला की मर्ज़ी से
हैं?

अल्ला? अल्ला यहाँ लूणी के घाटों की देवी है
सब घाटों की
उनके सर पर काँटों का ताज़ है
और अधोवस्त्र के तौर पर स्क्विड के छुअन्तुओं का घाघरा
हम और किसी अल्ला को नहीं जानते
---
तो साक्षात् अल्लाबीबी की मर्ज़ी से
सिसीफस पत्थर लुढ़काता बीबी के गुणगान करता आगे बढ़ा
चोटी पर पहुँचकर उसने सूखते चीथड़ों में से एक
बीबी के नोन-इश्टोप सेवक पहाड़ी बकरे को दिया
और पत्थर को दक्षिण दिशा की ढाल पर रवाना किया
ग्रामीणों ने बीबी की पीठ की ओर से आते पत्थरको
उनका प्रसाद माना
और वेदों ने उनका गुणगान किया
देवताओं ने पुष्पवृष्टि की
जनसाधारण से जयजयकार किया
प्रसाद लुढ़कता हुआ हेडीज़ पर बने बाँध से जा टकराया
चट-चट-चट करके बाँध फटा
बाँध की डूब में फंसे जीवों और वनस्पति की आत्माओं
को मुक्ति प्राप्त हुई
हेडीज़ अब लूणी बन गयी
पांच साल में एक बार बहती है
घाट उसके किनारे फिर भी बना दिए गए हैं
सभी पर अल्लाबीबी की मूर्तियाँ स्थापित हैं
श्रद्धालुओं का मेला लगता है
जो कोई प्रसाद पाता है, धन्य हो जाता है
स्कैनर्स-लोटे-रेलें हिनहिनाए
वेदों ने उनका गुणगान किया
देवताओं ने पुष्पवृष्टि की
बोल अल्लामाता की जय

अबठीकहै

अरे ठीक कैसे है?
खुली अलमारियों में
इतिहास की घोड़ेदार छुईमुई किताबें?
दिव्य दर्शन से भरे बारह बहियाँ, दो सौ पेट?
उनका क्या हुआ?
लोटे के प्रासंगिक होने का क्या आशय है?
रेल के अप्रासंगिक होने का क्या आशय है?
.
.
.
सुण भेंणचोद
सुबह से पडारा पसार के बैठा
बीबीगान को ध्यान से सुने नहीं है
मैं तब से भूखा-प्यासा अरड़ा रहा हूँ
प्रसाद पा के निकल यहाँ से मुफ़्तखोर


चलो भाय
आज के आनंद की जय
जहां मतिमंद घूमते होकर अभय
सर ऊंचा करके
फ़ोकट में ज्ञान प्राप्त करते
बीबी की उस पावन भूमि की जय
हर हर बहादेव!

बुधवार, 15 नवंबर 2017

चिल्लाओ

गला फाड़ के चिल्लाओ
उगलो किसी ज्वालामुखी की भांति
इतना पागलपन
कि दिशाएं किसी मुद्दत से फ्लश हुए संडास की तरह
ठस जाएं.
ऊटपटांग आकृतियों-आवाजों-गंधों की हिसहिसाती भीड़ में
जमाना भूल जाए कि सीधी पंक्तियों में
ब्लॉक-बाई-ब्लॉक
हमें जमाने की कोई कोशिश भी हुई थी.

शुक्रवार, 1 सितंबर 2017

धुर


किसी मुटाए हुए आदमी की अनामिका में पहनी
अंगूठी सी तुम
हतप्रभ समय-शंकु पर नकेल की तरह आरूढ़
भूतकाल की सारी घटनाएँ सिमट-गुँथकर
आतीं हैं तुम तक
और सारे संभावित भविष्य
तुमसे उत्प्रेरित
तुम्हारे होने से लक्षित
देश-काल का सुलझ जाना रिक्त व्योम में
आप्लावित इन्द्रियों के मुड़े-तुड़े बड़बड़ बिम्ब

तुम्हारा होना जैसे
ब्रह्मा की मृत्यु

शुक्रवार, 7 जुलाई 2017

भारत में विज्ञान की दुर्दशा और भाषा विवाद

क्या कारण है कि दुनिया के दूसरे सबसे विशाल भाषी समूह होने के बावज़ूद कोई भी वैज्ञानिक शोध पत्रिका भारतीय भाषाओँ में अपने शोध-पत्रों का अनुवाद करके प्रसारित नहीं करतीं है? नेचर और स्प्रिन्गर के विलय से बने प्रकाशन दानव की पत्रिका “नेचर” का प्रमुख हिस्सा विज्ञान की विविध शाखाओं में अत्याधुनिक शोध को प्रकाशित करता है. यह पत्रिका कोरिया, चीन और जापान जैसे देशों में, उनकी राष्ट्र भाषाओँ में अनूदित-प्रकाशित की जाती है. इसी प्रकाशन की पत्रिका “साइंटिफिक अमेरिकन”, जो कि विज्ञान में अभिरुचि रखने वाले सामान्य पाठक वर्ग के समक्ष नवीन वैज्ञानिक खोजों, अविष्कारों और उनसे उत्पन्न होने वाली विचारधारा को आकर्षक तरीक़े से पेश करती है. यह पत्रिका स्थानीय अनुवादकों और प्रकाशकों के सहयोग से तकरीबन बीस भाषाओँ में प्रकाशित की जाती है, जिनमे रूसी, ताईवानी और ब्राज़ीलियाई भाषाएँ शामिल हैं. नेचर की सालाना वेटेड फ्रेक्शनल काउंट इंडेक्स के हिसाब से भारत में शोध का आयतन ताइवान, ब्राज़ील और रूस जैसे देशों को कड़ी टक्कर दे रहा है. यद्यपि इस मामले में हम चीन और अमेरिका जैसे देशों के आस-पास भी नहीं फटकते, हमारे यहाँ शोध बड़ी तेज़ी से बढ़ रहा है, ख़ास कर जीव विज्ञान और रसायन विज्ञान में. हिंदी, मेंडेरिन के बाद दुनिया की सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है और बोलने वालों की संख्या रूसी, जापानी, कोरियाई इत्यादि से बहुत ज़्यादा है. तत्पश्चात, तमिल/ तेलुगु/ पंजाबी/ बंगाली आदि भाषाएँ भी बहुत पीछे नहीं हैं.

इसका ये अर्थ नहीं है कि भारत में शोध की स्थिति संतुष्टिपूर्ण है. बस यह कि अपने सामर्थ्य का एक नगण्य अंश देता हुआ भारत भी बहुत महत्वपूर्ण है. शोध की बढ़ोतरी से भी खुश मत होइएगा, सरकार ने जो अभी आधारभूत शोध की फंडिंग पर कुल्हाड़ी चला दी है उसका असर कुछ समय में नज़र आयेगा. डेढ़ अरब की आबादी वाले हमारे देश से जितने वैज्ञानिक शोध पत्र निकलते हैं उससे दो गुना ज़्यादा स्पेन से निकलते हैं और तकरीबन छः गुना चीन से. हर नेता के भाषण में हम यूएसए बनने के सपने देखते हैं. हमें याद रखना चाहिए कि मौजूदा तंग हालात के बावज़ूद यूएसए से निकलने वाला शोध आयतन में भारतीय विज्ञान का बीस गुना है!

भारत एक तेज़ी से बढती अर्थव्यवस्था है जहाँ आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा विज्ञान और प्रोद्योगिकी से वंचित है क्योंकि वो शेष छोटे हिस्से की भांति अंग्रेज़ी सीख नहीं सकता, आर्थिक और भाषिक मजबूरियों के कारण. ऐसे में सिर्फ़ अंग्रेज़ी का ज्ञान अभ्यर्थियों को कौशल और योग्यता की तुलना में कहीं आगे ले जाता है -- ऐसे स्थानों पर भी जहाँ अंग्रेज़ी की कोई आवश्यकता नहीं है. अंग्रेज़ी से इस विकारग्रस्त मोहब्बत का नतीज़ा है कि हमारे युवा दूसरे देशों की बनाई आधारभूत संरचनाओं में सस्ते बैल बनने को तैयार हैं बजाय अपने ही देश की आधारभूत संरचना को मज़बूत करने की कोशिश करने के. सच्चे अर्थों में आंत्रप्रीन्योर बनने के. उनको उदासीन महसूस कराने में हमारे संस्थानों ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी है. UGC द्वारा अनुमोदित शोध पत्रिकाओं की सूची देख लीजिये. विज्ञान और प्रोद्योगिकी वर्ग में एक भी भारतीय भाषा का जर्नल नहीं है. बंगाली/ तमिल/ तेलुगु तो दूर की चिड़ियाएँ है, हिंदी तक में विज्ञान का दस्तावेज़ीकरण शून्य के बराबर है. क्यों कोई सीखना चाहेगा हिंदी, अगर तकनीकी रूप से मज़बूत होना चाहता हो तो? यदि कोई सीखेगा, तो उसे मिलेगा क्या पढ़ने को? UGC की सूची से बाहर भारतीय भाषाओं में विज्ञान की दुर्दशा देखकर ही दिल दुहरा होने लगता है, जहाँ विज्ञान बस जादुई दवाइयों, बॉडी-बिल्डिंग और तथ्यों का अश्लील ढेर रह जाता है.

इसकी तुलना में जापान में जीव विज्ञान के 400 शोध जर्नल्स में से 300 जापानी भाषा में प्रकाशित होते हैं. आलम यह है कि वहाँ किये जाने वाले शोध को अंग्रेज़ी में अनुवाद करने की आवश्यकता पड़ती है. इन दोनों बातों में सम्बन्ध सिद्ध नहीं हुआ है पर यह एक सम्भावना है जो हमें भारतीय भाषाओँ के लिए खोजनी होगी. अन्यथा भारतीय विज्ञान इसी लूली रफ़्तार से चलता रहेगा और देश के भावी बेहतरीन वैज्ञानिक या तो वेंकी रामकृष्णन की तरह लन्दन में पनाह पाने को भागेंगे या फिर द्विभाषी न होने के ज़ुर्म में किसी ऐसे काम को करते हुए सज़ा काटेंगे जो करना उन्हें पसंद नहीं.

संभव है कि वित्त की कमी विज्ञान के प्रसार और शोध को धीमा कर दे. पर भारत में वैज्ञानिक गतिविधियों का अभाव मूलभूत रूप से स्थानीय भाषाओँ में उसकी अनुपलब्धता के कारण है. पर हिंदी तो काफी लचीली भाषा है जो किसी भी ढाँचे में ठीक-ठीक फिट हो सकती है. तो फिर हिंदी में विज्ञान का अभाव क्यों?

कारण अनावश्यक रूप से उलझी हुई अधिकतर समस्याओं की तरह स्पष्ट है. हिंदी विश्वार्द्ध में अपनी भाषा में विज्ञान में भाग लेने के प्रयास हो ही नहीं रहें है. सभी अंग्रेज़ी के माध्यम से उत्पन्न हुए हमारे योगदान से खुश हैं जो कि भारत की विशालता और संभावनाओं के आगे नगण्य है. हमारे निकट भविष्य के लक्ष्य, सुदूर भविष्य के लक्ष्यों पर हावी हो गए हैं. यदि अंग्रेज़ी सीखने से किसी को गोल्डमेन साक्स में नौकरी मिल जाती है, वो क्यों कोशिश करेगा भारत में वैसी कंपनी बनाने की! 2003 में फ़िनलैंड के वैज्ञानिकों ने अकादमिया में बढ़ते अंग्रेज़ी के प्रयोग के प्रति चेताया था कि यदि विज्ञान से फिन भाषा को हटाया गया तो प्रकृति की बारीकियों को पहचानने के मामले में धीरे-धीरे उनकी भाषा पंगु हो जाएगी. स्पष्ट है कि हिंदी में वो असर अभी से नज़र आने लगे हैं. किसी भाषा का हाल संस्कृत और लैटिन जैसा होने में समय नहीं लगता. लगभग सामान परेशानियाँ जापान और स्पेन के वैज्ञानिकों ने भी जताईं हैं.

जैसा कि गोथे ने कहा है, “जो दूसरी भाषाओँ को नहीं जानता, वो अपनी भाषा को भी नहीं जानता”.

हिंदी के तथाकथित कर्णधार हिंदी का प्रचार-प्रसार करने और अहिंदी प्रदेशों में उसे थोपने में जुटे हैं. हिंदी को भारत की राष्ट्रभाषा बनाने की कोशिश हो रही है. और हिंदी के बचे खुचे वक्ता और लेखक हिंदी की जड़ों को, उसके कारकों को भूलकर, राष्ट्रभाषा होने के दंभ में भरे अन्य भारतीय भाषाओँ को सीखने से इनकार कर चुके. हिंदी का क्रमिक विकास रुक चुका. दक्षिण भारतीय सरकारी विभागों में CCTV स्क्रीन्स पर हिंदी शब्द और उनके अंग्रेज़ी अर्थ दिखाए जाते हैं और कई कर्मचारी उन्हें सीखने का प्रयास करते नज़र आते हैं. हिंदी प्रदेशों में अन्य भाषाओँ के शब्द नहीं दिखाए जाते. ये कहना भर भी हिंदी भाषियों को अटपटा सा लगेगा. जब परा-सिन्धु प्रान्तों को एकीकृत करने निकली भाषा की दूसरी संस्कृतियों को आत्मसात करने की क्षमता विन्ध्याचल पार करते करते दम तोड़ दे तो उसका राष्ट्र-भाषा बनना तो लाज़मी नहीं. बजाय दक्खिन को शामिल करने के, हमारा झुकाव रोमन और लैटिन से उद्भूत भाषाओँ की ओर है जो फाइलो-लिंग्विस्टिकली हमसे कोसों दूर है. उन तत्वों को शामिल करना प्रगतिशीलता के खिलाफ़ नहीं है पर गड्ड-मड्ड प्राथमिकताओं का नतीज़ा अवश्य है.

ट्रांस-इंडियन भाषा के नारे लगाने की बजाय बेहतर होगा कि हम लोग विज्ञान और अर्थशास्त्र जैसे विषय, जो वैश्विक प्रगति में एक देश की भूमिका और महत्ता को निर्धारित करते हैं, अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाएं. अंग्रेज़ी को देश के विद्यालयों में पढाए जाते हुए 180 साल हो गए हैं. हमें यह भूलना होगा कि भारत के हर कोने में लोगों को अंग्रेज़ी या हिंदी सिखाई जा सकती है. हिंदी, बंगाली, पंजाबी, मराठी, तमिल, तेलुगु, मलयालम, कन्नड़, उड़िया, गुजराती इत्यादि भाषाएँ उनके विशाल भाषिक आधार से ऊपर किसी वैश्विक मंच की मोहताज़ नहीं है. इतने सारे पाठकों की जरूरतों को “दुस्साध्य” कहकर दुत्कार देने की बजाय हमें उन जरूरतों को पूरा करने की कोशिश करनी चाहिए. प्रयोग के तौर पर विश्व के प्रमुख वैज्ञानिक शोध पत्रों (जिनमें से अधिकतर ओपन सोर्स हैं) का अनुवाद करके ग्रामीण स्तर तक मुहैया कराना होगा. भारतीय भाषाओँ में इस प्रयोग की पहली हकदार हिंदी होगी (2001 की जनगणना के मुताबिक 41 प्रतिशत भारतीय हिंदी समूह को मातृभाषा मानते हैं और कुल 53 प्रतिशत हिंदी को जानते समझते हैं). तत्पश्चात, अन्य भाषाएँ सीधे अंग्रेज़ी से हिंदी वाले प्रयोग की समझ काम में लेते हुए या हिंदी अनुवाद से पुनः अनुवाद कर लाभान्वित हो सकतीं हैं.

तो हिंदी को दो लम्बी दूरी की दौड़ें तुरंत शुरू करने की आवश्यकता है: विश्व भर के वैज्ञानिक शोध को यथावत हिंदी में अनूदित करना और अन्य भारतीय भाषाओँ से ऐसी शब्दावली और संरचनाएं सोखना जो हिंदी में काम लीं जा सकतीं हैं.

इस प्रकार का प्रयोग सिर्फ़ प्रयोग के लिए नहीं होगा. यदि हम इतनी जानकारी लोगों को उपलब्ध करवाते हैं,

१. भारतीय पुरातन विज्ञान के बारे में फैले झूठ को सत्यों से अलग करने में जनता की भागीदारी होगी, बशर्ते अनुवाद पूर्णतया खुले मंच पर उपलब्ध हो
२. हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओँ के लिए तकनीकी और वैज्ञानिक शब्दावली तैयार होगी, बशर्ते उस शब्दावली को हम संस्कृत-करण से बचा पाएं
३. हिंदी और अन्य भाषाओँ के बीच खड़ी दीवारें कमज़ोर होंगी क्योंकि इस समय इनमें से कोई भी विज्ञान के मामले में आत्मनिर्भर नहीं है.
४. लोगों को उनकी अपनी भाषा में कुछ नया करने का मौक़ा मिलेगा और घरेलू इनोवेशन होने की संभावना बढ़ेगी.
५. भारत की मुख्यधारा के डिस्कोर्स में अंग्रेज़ी न जानने वाले लोगों की आवाज़ मज़बूत होगी. वर्तमान में देशज भाषाओँ को निम्न मानकर दरकिनार किया जाता है, यह सभी को विदित है.

समस्या यह है कि ये सब हवाई किले हैं. बड़ी संख्या में अलग-अलग विषयों से नौज़वान विद्वानों को व्यक्तिगत स्तर पर अनुवाद करना शुरू करना होगा. हिंदी में वैज्ञानिक डिस्कोर्स को जगह देनी होगी. हम यह मानकर विज्ञान को दरकिनार नहीं कर सकते हैं कि हम एक ग़रीब देश हैं. हमारी समस्याओं को सुलझाने के लिए बाहर से कोई नहीं आने वाला है. हो सकता है कि ये बीड़ा उठाने को पर्याप्त लोग न हों पर उस अक्रियता का अंजाम हमें ही भुगतना होगा.

सोमवार, 19 जून 2017

मेरे पापा बहुत अच्छे पेड़ हैं


(१)
मेरे पापा बहुत अच्छे पेड़ हैं
उनका हमेशा से सपना था
कि हम अच्छे पेड़ बनें
पर कभी हमसे कहा नहीं

उन्होंने कहा
कि तुम विद्रोह करो
पर शांति से
उनके उघड़ेपन ने हमें भीगने नहीं दिया
उनके कठोर हाथों ने हमारे जीवन में घर्षण नहीं पैदा किया
उनके बाल हवा में सरसराकर भी बिखरते नहीं
उनकी मूंछ कभी चाय से गीली नही होती.

(२)
मेरे पापा बहुत अच्छे पेड़ हैं
घंटों भरी भरकम रजिस्टर लिए बैठे-बैठे
उनके पैर लकड़ी के काउंटर में जड़ें जमा लेते हैं
सहज कर देते हैं वो
लोगों का आना और बैठना
और प्रलाप करना
वो सुबह जम्हाई लेते हैं तो
शेष बची थकान
पीठ से जड़ों की मिट्टी बांधे निकल आती है

(३)
मेरे पापा बहुत अच्छे पेड़ हैं
वो टस से मस नहीं हुए
मृत्यु और ऊब की डूब में
उनकी जड़ों में गांठें हैं
संस्थागत ऋण
रीति-रिवाज़
भूमंडलीकरण और व्यक्तिवाद
नियम-कानून
व्यापार और विचार
कहीं गहरे दबे हैं
भयावह युद्ध की राख
किसी के धुंधले कड़वे बोल
कई समानांतर विश्व
जमाए हुए पकड़
पानी की खोज में
बहुत गहरे

गुरुवार, 15 जून 2017

चन्द्रकला: बारिश

आंधी के झकझोरे पेड़
ने झाड़ दी
घंटों से संजोई बारिश
भिगो दिया मुझे
जैसे, चन्द्रकला, तुम
फट पड़ती हो खिलखिलाहट से
मेरा कोई उद्दंड मज़ाक सुनकर
बरसा देती हो सैकड़ों थपकियाँ

जैसे थपथपाकर मेरी दादी माँ
बाजरे की लोई को
बदल देती हैं
नम सतह वाली चपटी रोटी में
वैसे ही चलता हूँ मैं तुम्हारी बगल में
स्वेद-अच्छादित
अवाक्,
मुस्काता बेढ़ब

शनिवार, 3 जून 2017

एकळा बळै

एकळा बळै सगळा
अबिगत कोई रेख खींच गयो
खेत-खेजड़ा-टेसण-ढोर-मिनख सब

साथ के चीज रो है रे
पड़े है अर उडे है
धोखेबाज़ चीज़ है रेत बड़ी
म्हें रमता धूणी री तरियां
घड़ी भर में सा छूमंतर सा
कोई नदी अठे खेले कोनी, प्रेम सूं बतियावण ने
बारला बके करे
रंग थारा थार रा बड़ा जोरदार छे
रंगां सूं आँख्यां आली करां, लाडी
इण भट्टे में रचीज्या हा के?
बळै सगळा
एकळा

गाँव-गवाड़ रे
पाणी में फ्लोराइड मरे
कुसमय, गीगला, कुसमय
म्हारा दांत पीळा होग्या
कमर झुक गी
हाडकां में जोर रह्यो कोनी
दो छाँट ने अडीकता
आभो भी सावळ टिके नईं
बळतां ने कोई शीतळ प्या दे
बावळा
एकळा बळै सगळा

पण
देस सूं बारे किसो धन गड्यो है
घणा देख्या रे शार थारा
रुळ ल्यो सब सड़कां पर
तपत में
पाणी रा भी पईसा लेवे
धी गा काड़
मिनख सो मिनख है के कोई बठे
जिन्ने देखो हल्लो, गीगला
ढोर ने हांके इयाँ आदमी हांके
तूँद आगले रे ढूँगाँ में ठोक अर खड़िया है लेणां में
अड़ मरूं अर धड़ मरूं
जीण ने जीव ने जग्याँ कोनी
जो चीनी हवा पूगे
बा सूंघ अर ई जमारो अस्पताळ पूग जावतों
भाईजी-भाईजी करतां गळे मायां जाळ पड़ग्या
एकळा बळै सगळा, गीगला
सारे जमारे में
एकळा बळै

बुधवार, 17 मई 2017

Mariyaan (2013) Movie Review

This is my first Tamil movie in terms of serious viewing. So forgive me if I miss tropes or subtleties.
SPOILERS ALERT.

"Mariyaan"

Bharat Bala made a movie named "Hari Om" in 2004, full length feature film in English about self discovery associated adventures of a french woman in India. It was, to my surprise, star studded (A. K. Hangal and Vijay Raj are stars for me). But we do not care much about movies that far off from mainstream cinema.

Mariyaan, the man who never dies; more rooted in the sense of ever-living spirit of man.

Soundtrack is composed by A. R. Rahman. Need I tell you to immediately procure it and listen to it over and over again? Marc Koninckx, a Belgian cinematographer, has carved such beautiful frames that would melt you in the aura of it. Dhanush plays our simple faced, charismatic lead boy Mariyaan, a role that most suits his personality. Parvathy plays Pani, a doe-eyed beauty raised among fishermen who is amorous right from the childhood, obviously, for the charismatic lead.
Mariyaan is knighted as "Kadal Raasa" (King of the Sea), a reasonable title, as he kills spotted whale sharks with a mere single-headed, hook-nosed spear. Impressive. The ziddi protagonist comes to Parvathy in the epilogue of a stretched drama about the sea being his only mistress, after Yesupadam, Parvathy's father, inadvertently and unknowingly talks some sense into him. But he is thrust into a different world because of Yesupadam's debt to a man ("dark man", to be literal) who lusts after his daughter (Pani, the bold princess). Punching him does not solve the problem, apparently; it does temporarily avert his sexual predator instincts. Obviously, in an Indian village, nobody reports that to the police. Yesupadam owes a lot of money to this "dark man", going by the thick wad they pay him back with, without improving their standard of living. It should be noted that the money lent to Yesupadam is most likely through a non-institutional route, rendering it valid only in the societal context.

Despite being able to kick multiple asses simultaneously, the protagonist decides to take the high road, to pay back a non-institutional loan given by a rapist and arsonist. He takes the huge sum of money paid in advance for being cast as an approximately bonded labor somewhere in Sudan. A lot of time is spent on the silent/musical lovelorn phone conversations of the duo. Parvathy's job is to look beautiful, which she without a doubt excels at. But that is how the story goes.

The protagonist, on his way back, is captured by Darfuri rebels. The director has touched a painful nerve of Sudan that is very foreign to Indian populace. Yet, he fails to capture the plight of Darfuri people, projecting the rebels as 1-D villains made only of violence, lust and revenge. No purposefulness of an adult terrorist, no wisdom of a rebel fighting with lack of resources, no teen angst driving radicalism.... nothing. Just violent black boxes dancing and twerking forever to "afrika, afrika", firing away valuable bullets towards the sky, only to conform to the prevalent racist stereotypes ascribed to Afrikaans in Indian society. I am not a supporter of perpetually activist art, or of humanizing the foolish trigger happy bastards. But sometimes, you get a rare opportunity to be brave, to make a statement. A good film could take that without compromising the art, enhancing it even. You get an interesting villain, better opportunity for creativity in dialogue writing. Lastly, the glory of Kadal Raasa is already set up. No need of black box characters!

Anyways, coming to the performances: Dhanush portrays Mariyaan in a very convincing and surreal way. Playing in contrast to the beautifully expressed backdrops, the close-ups of his face emanate haunting emotions of fear, shock, despair and perseverance. The chemistry of the lead duo is very heartening and is consummated in the first act by a short but beautiful kiss (to the chagrin of the poor, possessive mother of Kadal Raasa). Both the [dark?] villains are sufficiently evil and appallingly non-human. Sidekicks (the matchmaker, the north Indian, the recently acquired langotiya yaar) are genuinely funny and humane. Locations are judiciously chosen and used in a very realistic way. The cheetah hallucination is a good touch and enhances the effect of Dhanush's acting. I personally enjoyed the humble movie-making process shots at the end.

There is a lot of potential to be unlocked here. Our (my?) hopes are on stand-by. Overall, it is an enjoyable lightweight movie that could use a little less of self-admiration and a little more of character development (or character unraveling at least).

बुधवार, 10 मई 2017

उखड़

दीवार-सी कठोर उसकी पीठ पर ठुकी कीलें हिल गयीं
रेशे तैर आए हरे गाढे द्रव के
काई से ढके, मच्छरों से तरबतर
सुगबुगे दलदली तालाब बन गए उसकी आँखों के चारों ओर
धँसती गयी उसकी जड़ें
किसी पुरानी गली में
ले आई है उसकी खोज उसे
कूदते-फाँदते, घिसटते-लटकते
उसकी साड़ी में छेद हो गए हैं
और मति में स्मृतिभ्रंश
अवाक्, उसने सर उठाया
दूर किसी बुड्ढे की खाँसी की भांति
सूने घर की काल्पनिक सांय सांय ने
झकझोरा उसे
पहेली सी गूँजती भाषा में

इसी डूब में कहीं आस पास उसका घर था
जिसके कोनों में उसके भय बसते थे
खेजड़ी के काँटों की तरह जो
रक्षा करते थे रह्स्यों की
जिनको नंगा कर देना था उसे हाड़ा रानी की तलवार से
जहाँ गुसलखाने में फिसल कर उसके नितम्ब का जोड़ हिल गया
दुविधाओं के वक़्त उस चोट की कसक लौट आती अचानक ही
जहाँ घट्टी की गरड़-गरड़ में पहाड़ों का रट्टा भुला जाता था
उनकी जगह आ बैठती थीं
विसंगतियों से लदीं कहानियां
जिसकी पानी की मोटर हेडीज़ की तरह भूतों को कुओं
से निकाल कर धूप में लेटा देती थी
उनकी संतुष्टि भरी आहों से उसके नथुने बेचैन हो उठते थे

उसके घुटनों में दर्द है
पर नितम्ब में कोई कसक नहीं
वो भौचक है कि कैसे कहानियों की डोरियाँ ले आयीं उसे
इधर
जहाँ से वो भागी थी भीगी, अधूरी बुनावटें लेकर
अरबों टिड्डे टकराए थे उसकी पीठ से
एक पत्ती भी साबुत नहीं बची
वहाँ धरती की नसों ने जमा कर दिया है
खालीपन का पीब
और अजनबीयत
ये उसका देश नहीं है
पर ये जगह उसकी है।

सोमवार, 24 अप्रैल 2017

नून मीम राशिद की कविता "पहली किरन" के अनुवाद का प्रयास

Attempt at translation of the poem "First ray of light" by Noon Meem Rashid (1910-1975, Alipur Chattha, Pakistan)
(Most of the word-meanings were taken from Rekhta)
WARNING: People with strong religious sentiments, stop reading now.

कोई मुझ को दौर-ए-ज़मान-ओ-मकाँ से निकलने की सूरत बता दो
कोई ये सुझा दो कि हासिल है क्या हस्ती-ए-राएगाँ से
कि ग़ैरों की तहज़ीब की उस्तुवारी की ख़ातिर
अबस बन रहा है हमारा लहू मोम्याई
मैं उस क़ौम का फ़र्द हूँ जिस के हिस्से में मेहनत ही मेहनत है नान-ए-शबीना नहीं है
और इस पर भी ये क़ौम दिल शाद है शौकत-ए-बास्ताँ से
और अब भी है उम्मीद-ए-फ़र्दा किसी साहिर-ए-बे-निशाँ से
मिरी जाँ शब-ओ-रोज़ की इस मशक़्क़त से तंग आ गया हूँ
मैं इस ख़िश्त-कोबी से उकता गया हूँ
कहाँ हैं वो दुनिया की तज़ईन की आरज़ूएँ
जिन्हों ने तुझे मुझ से वाबस्ता-तर कर दिया था
तिरी छातियों की जू-ए-शीर क्यूँ ज़हर का इक समुंदर न बन जाए
जिसे पी के सो जाए नन्ही सी जाँ
जो इक छिपकिली बन के चिमटी हुई है तेरे सीना-ए-मेहरबाँ से
जो वाक़िफ़ नहीं तेरे दर्द-ए-निहाँ से
इसे भी तो ज़िल्लत की पाबंदगी के लिए आल-ए-कार बनना पड़ेगा
बहुत है कि हम अपने आबा की आसूदा-कोशी की पादाश में
आज बे-दस्त-ओ-पा हैं
इस आइंदा नस्लों की ज़ंजीर-ए-पा को तो हम तोड़ डालें
मगर ऐ मिरी तीरा रातों की साथी
ये शहनाइयाँ सुन रही हो
ये शायद किसी ने मसर्रत की पहली किरन देख पाई
नहीं इस दरीचे के बाहर तो झाँको
ख़ुदा का जनाज़ा लिए जा रहे हैं फ़रिश्ते
उसी साहिर-ए-बे-निशाँ का
जो मग़रिब का आक़ा था मशरिक़ का आक़ा नहीं था
ये इंसान की बरतरी के नए दौर के शादयाने हैं सुन लो
यही है नए दौर का परतव-ए-अव्वलीं भी
उठो और हम भी ज़माने की ताज़ा विलादत के इस जश्न में
मिल के धूमें मचाएँ
शुआ'ओं के तूफ़ान में बे-महाबा नहाएँ



Someone please tell me a way out of this age, time and space.
Someone please tell me what is the point of this fruitless existence.
Where for the strengthening of someone else's idea of civilization,
our blood is turning to wax with no justification.
I am a member of that race, whose fate is full of hardwork and is without food for the night.
And yet this race basks in the glory of days long past.
And still there is hope from some unknown magician.
O life, I am tired of this toil, day and night,
I am tired of this brick-beating.
Where are those longings of adornments, O world!,
that connected me and you?
Why does the stream of milk from your breasts not become an ocean of poison,
that can put this child to sleep...
who embraces your kind heart like a lizard,
who does not know your hidden pain;
she will have to become a tool for everyday disgrace
It is enough that, in an attempt to pacify our ancestors' souls,
we are crippled.
We have to break the chains that bind the feet of our future generations.
But O companion of my dark nights!,
are you listening to these clarinets?
Someone was able to see the first light of happiness somewhere, maybe...
No no, take a peek out of this window...
angels are carrying the casket of god almighty,
of that same unknown magician,
who was the lord of setting sun and not of the rising one.
These are the horns of a time when the man is superior to the gods, listen carefully.
This is the dawn of the new times.
Wake up, let's participate in this celebration of the new age,
let us make some noise...
in the tempests of light, let us bathe without a care.

मंगलवार, 4 अप्रैल 2017

दुर्भिक्ष!

आधी फटी सीमेंट की चद्दर में से
झाँकती रेत और कंकड़-पत्थर
दूर तक फैले, आसमान में मिल गए कहीं
जहाँ तक मैं और मेरा भाई टहल आए
दुनिया-जहान की बातें करते करते

कहीं रस्ते में माँ की आवाज़ सुनाई दी
ये क्या कबाड़ फैला रखा है बरामदे में
संभल कर रक्खो ये सब
आसमान के रंग, अचल जल के विशाल चेहरे
ऊंटों की टपकाई गोलियां
रंगे-पुते नकली आदर्श घर
पारदर्शी स्वप्न
कुछ टूट फूट गया तो मुझे ओळमा न देना
संभल-संभल कर कदम रखना

अन्दर रख दो सब कुछ सार सम्हाल कर
जरुरत पड़े तब निकाल लाना

पर हम जानते हैं कहीं गहरे
अंतस में
अगर जमा कर रख दिया इन सबको
किसी ताक में अगर
बिखर जायेंगे रुधिर के सूखे थक्के की भांति ये
तब तुम आसमान की ओर देखकर कहोगी, माँ,
दुर्भिक्ष!

मंगलवार, 21 फ़रवरी 2017

वैदिक विज्ञान और आधुनिक विज्ञान की तुलना एक फेसबुकीय बहस

फेसबुक पर मैंने हो कागलो एक नाम के इन्सान (जिसका राजस्थान में अर्थ है, "एक कव्वा था") का ये स्टेटस देखा और मुझे लगा कि उसपर बहस होनी चाहिए. बंदा सज्जन है वर्ना इतनी गहरी बहस के बाद लोग काफी "असहिष्णु" हो जाते हैं. पर मेरे परिप्रेक्ष्य में ये विचारधारा छद्म विज्ञान है जो कि प्रकृति में, खासकर हमारे देश में, "वायरल" है. हो कागलो एक के हिसाब से ऐसा नहीं है सो ध्यान रखें, हो सकता है, रैंडम इंसान, आप उनसे सहमति प्रकट करें.
विचार यह है कि भारतीय पुरातन विज्ञान विश्व को समझने के लिए आधुनिक विज्ञान की तुलना में कितना कारगर हो सकता है.

"हो कागलो एक" का स्टेटस

अगर सब कुछ ऊर्जा ही है तो पद-अर्थ क्या है !
( if everything is energy then whats the matter ? )
जबकि सबकुछ ऊर्जा है और नियमबद्ध है ,
तब यह आसानी से समझा जा सकता है
कि प्रत्येक फोटोन ( प्रकाश की एक ज्ञात इकाई ) , प्रत्येक अणु परमाणु ( पदार्थ की एक ज्ञात इकाई ) , प्रत्येक अन्य द्रव्य इकाई नियमानुसार ही गति करती है और नियम अनुसार ही बंधती विलगति है तो ये सबकुछ जो दृश्यमान है और इसके इतर भी जो कुछ जानकारी में आता है वो सबकुछ किसी स्वचालित यंत्र की भाँति कार्य कर रहा है ।
ये पूरा का पूरा सृष्टि तंत्र जो अथाह ऊर्जा और असीम द्रव्य समेटे अथाह गहराई और अनंत दूरियों तक विस्तृत है , कुछ गिनती भर या शायद अनगिनत नियमों से आबद्ध एक बंद तंत्र है जिसमें कोई भी भीतरी या बाहरी परिवर्तन संभव नहीं है और इसकी गति एक तय गति है चाहे वो पाई के दशमलव प्रसार की तरह कितनी ही अबूझ या एक मक्खी की उड़ान की तरह कितनी ही क्लिष्ट क्यों ना हो । जबकि यह सबकुछ किसी यंत्र की तरह है जो तय नियमों से आबद्ध है और यहाँ इस तंत्र से अन्य कुछ भी नहीं है तो जो कुछ ज्ञान या बुद्धि के प्रकाश में आता है वो भी मात्र एक चलचित्र की भाँति वर्त रहा है और उसका मान सिवाय इसके कि आप इस दृश्य में कितने आसक्त हो और कुछ भी नहीं है ।
जबकि यह पूरा तंत्र विज्ञानमय ही है अतः अपरिमित योग संयोगों के उपरान्त भी इसका प्रत्येक दृश्य और इसकी गति तयशुदा ही होगी जो कि इसे समझ पाने की स्थिति में अनुमानगम्य भी होगी और गतिमान होने के उपरान्त भी स्थिर ( या स्थिरगतिज ) कहलाएगी ।
जबकि विज्ञान का होना और किसी भी बाह्य कर्ता का ना होना स्वयंमेव प्रमाण है कि यह सृष्टि मात्र किसी पूर्वघटित या पुनःपुनर्घटित होते रहने वाले एक चलचित्र के अतिरिक्त कुछ भी नहीं तो फिर मुझे बताइये --
किस तरह वर्तमान विज्ञान भारतीय वेद ज्योतिष पुराण और इतिहास से बेहतर है ? ( वहाँ यह सबकुछ लिखा है जिसका विज्ञान की संपूर्णता में निष्कर्ष निकलता है । )
किस तरह वो विज्ञान जो अपने साथ उसे प्रयोग में लाये जाने के धर्म से विहीन ( बिना precautions , guidelines और laws के ) है भारतीय पुराविज्ञान से बेहतर है ?
किस तरह उन तत्वों से जो हमारी देह और हमारे पर्यावरण में स्वतः दृष्टिगोचर होते हैं से तत्व की वो परिभाषाएं बेहतर मान ली गयी जो अत्यधिक प्रयासों के बाद कहीं मुश्किल से दृष्टि में आते हैं और जिनके दर्शन के लिए भी उन साधनों की आवश्यकता पड़ती है जो स्वयं भी कृत्रिम है और जिनमें से कुछ सुस्थिर भी नहीं ।
क्या कोई बताएगा वो किस तरह बेहतर हैं और बेहतर की उनकी परिभाषा क्या है ।
#कागलो_बोल्यो

मेरा कमेंट:

१. सब गति तय नहीं होती और सब घटनाएँ निर्धारित नहीं होती. नियम हैं तो अनिश्चितताएँ भी हैं.
२. सृष्टि पूर्वघटित या पुनःघटित है ऐसा सिद्ध नहीं हुआ है. यह एक वैज्ञानिक थ्योरी भी नहीं है, हॉकिंग ने उस विचार को संभावनाओं में शामिल किया है पर उसे सिद्ध करने का कोई तरीका नहीं है. क्योंकि मात्रा अनंत हो सकती है, संभावनाएं भी अनंत हो सकती हैं. आप यह नहीं मान सकते कि सम्भावनाएं ख़त्म होने पर घटनाओं को स्वयं को दोहराना होगा.
३. पुराणों में विचारों का नयापन अपने समय के हिसाब से बहुत अच्छा था जिसको आप अधिक से अधिक दाविन्ची और न्यूटन से compare कर सकते हैं. उन विचारों को किसी ने सिद्ध नहीं किया, extrapolate नहीं किया. वर्तमान विज्ञान ने हर परिस्थिति और विचार के लिए testable hypothesis विकसित किये हैं, जिनपर प्रयोग करके उन्हें सिद्ध किया जा सकता है. स्पष्ट है कि उस समय ऐसा करने के लिए उपकरण और वैश्विक वार्तालाप नहीं थे पर इस आधार पर किसी भी तरीके को छूट नहीं मिलेगी.
४. तत्वों की परिभाषा करने के लिए यह महत्वपूर्ण नहीं है कि वो दृष्टि के लिए कितने सुगम हैं. तत्व की सही परिभाषा वो है जहाँ वो अन्य तत्वों से पूर्णतया भिन्न है और एक स्वतंत्र चर की तरह प्रयुक्त किया जा सकता है. सामान्य दृष्टि में इनको समझना जरुरी है पर उसके लिए पुरातन परिभाषाएँ स्वीकार करना आवश्यक नहीं, बस तत्वों के स्थान पर एक दूसरे पर निर्भर रहने वाले तत्व-तंत्र के रूप में चीज़ों को समझाया जा सकता है. विज्ञान में उसका उपयोग सीमित है.
५. "जिनके दर्शन के लिए भी उन साधनों की आवश्यकता पड़ती है जो स्वयं भी कृत्रिम है और जिनमें से कुछ सुस्थिर भी नहीं" -- कृत्रिम से आपका क्या मतलब है? हमारी आंख कृत्रिम नहीं है? सूक्ष्मदर्शी कृत्रिम है? कैसे? सूक्ष्मदर्शी कोशिका विज्ञान में इसलिए बेहतर है क्योंकि हम घटना के स्तर पर जा कर देख सकते हैं कि क्या हो रहा है. यदि कोई व्यक्ति यह पता करना चाहता है कि किसी जीव की जनसँख्या पर्यावरण से कैसे व्यवहार करती है तो सूक्ष्मदर्शी उसके लिए किसी काम की नहीं. विज्ञान में बेहतर और कमतर सिर्फ़ परिप्रेक्ष्य की उपयुक्तता के आधार पर निर्धारित होता है, कृत्रिम-प्राकृतिक के आधार पर नहीं, जो कि ironically अपने आप में एक कृत्रिम आधार है, हमने बना लिया है.
६. पुरातन विज्ञान का वो हिस्सा जो सैद्धांतिक रूप से सही है पुनः सिद्ध किया जाना चाहिए और उपयोग में लाया जाना चाहिए. पर पदार्थ का अध्यात्मिक आयाम मेरे विचार में इंसान की wishful thinking है जो किसी काम की नहीं है.
७. धर्म से आप शायद नैतिकता की बात कर रहें हैं. मेरे विचार में धर्म ने जबरदस्ती अपने आपको नैतिकता के प्रवर्तक के रूप में थोप रखा है. नैतिकता commensalism (साथ में कुछ अन्य घटनाक्रम भी) के कारण हमारे survival के लिए महत्वपूर्ण बनी और धर्म ने उसको "वायरल" कर दिया. नैतिक होने या नई खोज की नैतिकता को समझने के लिए पोथों की ज़रूरत नहीं है, यह समझने की ज़रूरत है कि हमारे समाज के बनने और फ़ैलने का उद्देश्य क्या है? समाज व्यक्ति को क्या उपलब्ध करवाता है और क्या अपेक्षा रखता है. साथ ही भविष्य में इन चरों में क्या जुड़ेगा. बस.


हो कागलो एक का उत्तर
जबकि सृष्टि विज्ञान मात्र हो तो सब कुछ के नियम् होंगे और अनिश्चितताएं भी मात्र उनका संयोग होंगी जिनकी प्रायिक्तायें और क्रमबद्धता भी तय होंगी भले ही वो इतनी वृहत और विस्तृत हों कि हम ना जान सकें ।
2 . मैंने निष्कर्ष की एक सम्भावना पर बात की है अन्य को ख़त्म नहीं माना है ।
3 . खुद मनुष्य से बेहतर कौनसा उपकरण है ? और किस तरह कहा जा सकता है कि उन्हें किसी ने सिद्ध नहीं किया , क्या किसी बात को सिद्ध करने के अभिनके तरीके ही सिद्ध हैं उस समय के नहीं , और क्या उस समय के बारे में हमें सबकुछ पता है ? क्या कुछ भी लुप्त या नष्ट नहीं किया गया होगा ?
4 . बात सिर्फ दृष्टि की सुगमता की नहीं है । प्यास लगती है तो पानी से बुझती है , जिन आकाश वायु अग्नि जल पृथ्वी आदि को तत्व माना गया उनके अनुसार हमारी जीव संरचनाएं भी विकसित होती हैं । उदाहरणार्थ आकाश के गुण शब्द के लिए कान और कंठ , वायु के गुण स्पर्श और गति के लिए त्वचा और पैर् , अग्नि के गुण रूप के लिए आँख और हाथ , जल के गुण रस के लिए रसना और उपस्थ तथा पृथ्वी के गुण गंध के लिए घ्राण और गुदा । और हमारे अंग भी उसी क्रम और रचना की सहजता में होते हैं जो प्रकृति में सहज ही दृष्टि गोचर होते हैं ... क्रमशः


मेरा उत्तर
१. पुनः कहूँगा, सभी अनिश्चितताओं में नियम निहित नहीं होते. दृष्टिगोचर विश्व में ऐसा प्रतीत होता है क्योंकि प्रयिकताएँ पूरी तरह से समान नहीं हो पाती और क्रमबद्धता तय हो जाती है. इलेक्ट्रान ट्रांजीशन जैसी घटना में समान संभावनाएं हो सकतीं हैं. यह इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि आप आगे इसे assumption की तरह काम ले रहे हैं. यदि शून्य समय पर विश्व को फिर से शुरू किया जाए तो बहुत संभव है कि उसकी गति पूर्णतया भिन्न हो.
2. "जबकि विज्ञान का होना और किसी भी बाह्य कर्ता का ना होना स्वयंमेव प्रमाण है कि यह सृष्टि मात्र किसी पूर्वघटित या पुनःपुनर्घटित होते रहने वाले एक चलचित्र के अतिरिक्त कुछ भी नहीं" -- आपने अन्य को ख़त्म माना है
३. "खुद मनुष्य से बेहतर कौनसा उपकरण है?" कविता के लिहाज़ से ये काफी अच्छी पंक्ति है पर विज्ञान के लिहाज़ से बिल्कुल भी नहीं. क्लिष्टता बेहतर होने का लक्षण है ऐसा बहुत लोग मानते हैं और ये भाव बिल्कुल ग़लत है, क्रमिक विकास की ग़लत व्याख्या का कारण बनता है.
हमारी दृष्टि, स्पर्श, श्रवण, आवाज़ बहुत ही सीमित स्पेक्ट्रम वाले हैं. हमारी प्रोसेसिंग यूनिट शानदार है ये अलग बात है.
"उन्होंने सिद्ध किया होगा, हमें क्या पता" वही भाव है जो कई लोगों के ईश्वर को नकार न पाने का कारण है. हो सकता है सिद्ध किया हो के आधार पर सिद्धांत को नहीं माना जा सकता. प्रयोग और प्रपत्ति के लिए सबसे महत्वपूर्ण है परिणाम का पुनरुत्पादन. यदि प्राचीन वैचारिक गल्प को testable hypothesis में तोड़ कर पुनः सिद्ध कर दिया जाए तो कोई मूर्ख उसका प्रतिवाद नहीं करेगा. अन्यथा, "वेदों में सब बदा है" को कोई नहीं मानेगा
४. यहाँ भी, "प्यास लगती है तो पानी से बुझती है" ज्ञान की प्यास? साधारण प्यास? क्या है प्यास? क्या है पानी? प्रायिकता और क्रमबद्धता जैसे सूक्ष्म सिद्धांतों को आप प्यास जैसी मोटी (broad) घटना से समझेंगे? किसी कोशिका से सम्बद्ध प्रश्न का उत्तर किसी ने सूक्ष्मदर्शी से दिया है, खुरदरेपन का सुबूत एटॉमिक फ़ोर्स से दिया है तो आप उसको न मानकर अपनी आंख प्रयुक्त करने की कोशिश करेंगे?
अंग हमारे पर्यावरण के हिसाब से विकसित हुए हैं ये आप समझते हैं ये काफी अच्छी बात है पर उनके जो कारण आपने बताए हैं वो काफी ग़लत हैं. जिन चीज़ों को हम स्पर्श करते हैं, सूंघते हैं, देखकर पहचानते हैं या चखते हैं वे इन सभी तत्व-तंत्रों में फैलें हैं. किसी एक के हिसाब से एक अंग विकसित नहीं हुआ है. सिर्फ़ वैचारिक-तार्किक-भाषिक आधार पर माने जाने के कारण ये बातें निराधार हैं. वास्तव में पुरुष और प्रकृति को सामान्य विश्व में अलग करके, केवल अध्यात्मिक विश्व में एकाकार मानकर दर्शन ने पूरी कौम को ग़लत रास्ते पर डाल दिया है. जो प्रकृति में सहज दृष्टिगोचर होता है हमारे अंग उस रचना में ढले हैं क्योंकि हम उसके साथ ही विकसित हुए हैं, उसी के भाग बनकर. ये धार्मिक दर्शन का induce किया हुआ दोहरापन है जो हम लादे चलते हैं.
--- लिखते चलिए, जब तक बन पड़ेगा जवाब दूँगा.




हो कागलो एक का उत्तर
शून्य से शुरू होने पर जो भी सृष्टि बनेगी वो संयोगो के क्रमचयों में से ही कोई एक तस्वीर होगी । भले ये भी अनंत के तुल्य हो । बात ये नहीं कि जानी जाएगी या नहीं पर तय होगी । उसमें पुरुषार्थ द्वारा बदलाव की कोई सम्भावना नहीं हो सकती ।
2 . मैंने अन्य को ख़त्म नहीं माना , बल्कि सभी संभावनाओं को पूर्व घटित कहा है , कहने का अर्थ कि यदि विज्ञान ही सबकुछ है तो वो पूर्वघटित की अनंत संभव स्थितियों में से कोई एक स्थिति होगी पर किसी ऑटोमैटिक मशीन की तरह अपने निश्चित प्रोग्राम पर चलेगी । और स्थित संभावनाओं के समुच्चय से बाहर जा पाना जिसके output के लिए संभव नहीं ।
हमारे perception सीमित स्पेक्ट्रम वाले हैं जब तक कि उन्हें विकसित ना किया जाए ।
मनुष्य से बेहतर कौनसा उपकरण है पंक्ति कविता के लिहाज से बेहतर लगी उसका शुक्रिया , पर यह विज्ञान के हिसाब से अच्छी नहीं बेहद अच्छी पंक्ति है , वर्ना अब तक वो आर्टिफीसियल मनुष्य बना चुके होते ।
क्लिष्टता को मैंने बेहतर होने का लक्षण नहीं कहा , आधुनिक रसायन और भौतिकी से क्लिष्ट तो क्या होगा ।
" उन्होंने सिद्ध किया होगा हमें क्या पता " ये मेरा भाव नहीं , बात सिद्ध ना माने जाने के उस भाव की है जिसकी सिद्धि का आधार् भी आधुनिक विधियाँ हैं ।
प्यास लगती है पानी से बुझती है में पानी महत्त्व का है । खैर , मोटी घटना है आपके हिसाब से महत्वहीन होगी ।
किसी एक के हिसाब से एक अंग विकसित नहीं हुआ , पूरी देह एक साथ ही विकसित हुई , पर वो अंग उन तत्वों के लिए ही विक्सित हुए जो सहजता में मूल तत्व हैं ।

मसलन आकाश के गुण शब्द के लिए कंठ ऊपर है नीचे वायु के लिए फेफड़े और नीचे अग्नि से संबद्ध पाचन तंत्र जल और पृथ्वी से संबद्ध मल मूत्र के त्याग के लिए बने अंग ।
पृथ्वी जल अग्नि वायु आकाश मन बुद्धि और अहंकार के प्रभाव केंद्र देह में स्पष्ट ही नीचे से ऊपर व्यवस्थित हैं , पर जैसे सृष्टि में सबकुछ इनके घुलने मिलने से बना है वैसे ही देह भी , तो पूरी देह ही इन तत्वों से बनी है । खैर ये सब चीजें बहुत डिटेल में हैं और एक पूरा विज्ञान है जो इस संदर्भ में महत्वपूर्ण है जिस तरह संरचनाएं स्वतः विक्सित हुयी हैं उनका मैनीपुलेशन भी उसी तरह बेहतर हो सकता है ।
पुरुष प्रकृति को अलग नहीं किया गया है , बल्कि नर में पुरुष तत्व का मात्रात्मक अनुपात और नारी में प्रकृति तत्व का मात्रात्मक अनुपात अधिक बताया गया है। सबकुछ प्रकृति पुरुष के संयोग से बना बताया गया है ।


मेरा उत्तर
"सबकुछ प्रकृति पुरुष के संयोग से बना बताया गया है" कहना किस प्रकार सही है? पुरुष प्रकृति से भिन्न नहीं है और न ही उसकी भौतिकी भिन्न है. सिर्फ़ परिप्रक्ष्य के लिए बर्तन प्रस्तुत करने वाला बुद्धिमान तंत्र होने से हमारे दर्शन में उसे जगह मिली है. दूसरे, नर और मादा में मूल रूप में क्या भिन्न है? x और y क्रोमोजोम? दोनों का आणविक विन्यास भी उन्हीं नुक्लियोटाइड से बना है जिनसे शेष जीनोम. सबकुछ प्रकृति का स्वतन्त्र विकास है और कुछ नहीं.
इस सम्बन्ध में इस बात को सच माना जा सकता है कि संभावनाओं का (अनंत?) समुच्चय सीमित नियमों पर काम करता है और "पुरुषार्थ" से कुछ बदला नहीं जा सकता है. उसमें समस्या यह है कि हम पुरुष को मुक्त इच्छा वाला मान रहें हैं. पर वह प्रकृति का हिस्सा है जो स्वतन्त्र रूप से विकसित होता है और निश्चित रूप से होने वाले को बदल सकता है. पर वह सम्भावना समुच्चय के बाहर नहीं जायेगा ये बिल्कुल सत्य है.

"क्लिष्टता को मैंने बेहतर होने का लक्षण नहीं कहा" जबकि आप उससे ठीक पहले कहते हैं कि मनुष्य बेहतर उपकरण है अन्यथा कृत्रिम मनुष्य बना चुके होते. जो कि सीधे सीधे मनुष्य की क्लिष्टता की ओर इंगित करता है. हमारे perception कितना भी विकसित करने पर अपनी सीमाएं पार नहीं कर पाएंगे क्योंकि वो एक सीमित और ख़ास वातावरण में विकसित हुए. संभव है कि x-रे से लदे वातावरण में दृष्टि कुछ भिन्न होती और जीनोम किसी और चीज़ का बना होता. उस हाल में उसकी कुछ अलग सीमाएं होतीं जो, पुनः, कितना भी कोशिश करने पर नहीं लांघी जा सकती. क्योंकि जब एक क्लिष्ट तंत्र विकसित होता है तो वो सभी संभव परिस्थितियों के हिसाब से विकसित नहीं होता. और हम जब पुनरुत्पादन न करने वाली "मशीन" बनाते हैं तो हम उस सीमा को लांघते हैं. मतलब उनके बिना हमारा perception पंगु है, अधूरा है.
न तो वैदिक "विज्ञान" इन सीमाओं को लांघने में कामयाब होता है, न ही लांघने का पर्याप्त सैद्धांतिक आधार (सम्भावना समुच्चय का गणितीय विवेचन) देता है.
प्यास को मोटी घटना कहना "महत्वहीन" कहने जैसा लगेगा इसीलिए मैंने "broad" लिखा था. मेरे कहने का मतलब है की जब कम चरों वाले सूक्ष्म कारकों पर आप विचार कर रहें हैं तो अधिक चरों और विशाल फैलाव वाली broad घटनाओं का उदाहरण देना उपयुक्त नहीं है. न तो उनका "उपमा" के रूप में कोई प्रभाव है, न ही समस्या को सुलझाने की क्षमता. जैसा मैंने कहा, उपकरण या समाधान समस्या के फैलाव के आधार पर बेहतर या कमतर होते हैं, न तो सूक्ष्म बेहतर है न ही क्लिष्ट.

"जिसकी सिद्धि का आधार् भी आधुनिक विधियाँ हैं", आधुनिक विधियों से ज्ञात हुआ इसलिए सिद्ध नहीं माना जाता, बल्कि आधुनिक विधियाँ इसलिए विकसित की गयीं हैं ताकि जो पुराने सीमित perception वाले तरीकों से test न किया जा सका, उस पर प्रयोग किये जा सकें. (ये तो सीधा सीधा प्रभाव और कारण का कन्फ्यूज़न है)
"एक पूरा विज्ञान है जो इस संदर्भ में महत्वपूर्ण है" और उस विज्ञान को ढंग से न देखने या सीमित perception से देखने के कारण ही ऐसा छद्म-विज्ञान जन्म लेता है, जो आपने शायद हमारे ग्रंथों से सही ढंग से ही उद्धृत किया हो. आकाश, पृथ्वी, वायु, अग्नि के साथ बेमतलब के गुण जोड़ दिए गए हैं जो उनसे कोई भिन्न वास्ता नहीं रखते. उदाहरण के लिए आकाश में शब्द. शब्द का एक अहम् हिस्सा ध्वनि है जो जल और ठोस (पृथ्वी?) में बेहतर चलता है और अन्य जानवरों द्वारा perceive भी किया जाता है (इस प्रसंग में उनके उपकरण बेहतर हैं). मष्तिष्क की कोशिकाएं उससे सम्बद्ध विचार को जन्म देंगी जो ions से बना होता है (जिसे समझने में तत्व तंत्रों का वैदिक विचार, वर्तमान प्रसंग में बुरी तरह से अक्षम है, पृथ्वी कहेगा - अहंकार उसी जगह उत्पन्न होगा जिसके अपने आप में कई भाग हैं). मन और बुद्धि, पुनः हमारे आन्तरिक पारिस्थितिकी तंत्र के "तत्व-तंत्र" हुए जो इसी प्रकार ज्यादा उपयुक्त तत्वों में तोड़े जा सकते हैं, और मेरे आस पास ही कई लोग उसकी समझ को बड़ी तेज़ी से आगे बढ़ा रहें हैं.
तत्पश्चात वायु का वास्ता फेफड़ों से आगे बहुत गहरा है. यहाँ से "देह पंचतत्वों के मिलने से बनी है" सही तो साबित हो जाता है पर आपको cerebral अंगिका का उदहारण देखना चाहिए जहाँ यही सब अंगों के एक ढेर में तब्दील हो जाता है. वहां भी ये वाक्य सही तो साबित होगा पर कोई उपकरण तैयार नहीं होगा. कारण ये कि तत्वों और तत्व-तंत्रों का घुलना मिलना बहुत सूक्ष्म और नियंत्रित होता है, जिसको अग्नि-वायु... इत्यादि वाले विभाजन से नहीं समझा जा सकता.

लब्बेलुआब यह कि हमारे पोथों ने बहुत अच्छी कोशिश की है प्रकृति को समझने की और यदि भेड़ों की तरह कर्मकांडों में खोने की जगह हम उन्हें आलोचना की नज़र से देखते और उनकी सीमितताओं को नवीन विचारों से लांघने की कोशिश करते तो तो वाकई हमारा विज्ञान आधुनिक होता. इसमें वर्तमान विज्ञान से कोई भेद नहीं होता, क्योंकि दोनों एक ही चीज़ होते. पर ऐसा नहीं है. पुराना ज्ञान cerebral अंगिका की भांति सिद्धांतों का धर रह गया, सृष्टि को समझने का, सीमाओं को लांघने का उपकरण नहीं बना. और हम अगर इसी प्रकार पुराने सीमित विचारों की नए बहुमुखी विचारों से निराधार तुलना करेंगे तो कोई पुराना अनजाना, अपरिष्कृत विचार पूर्ण होकर सामने नहीं आ पायेगा, क्योंकि हम उसकी सीमितताओं को मानने को तैयार ही नहीं हैं.

मेरी ओर से इति, क्योंकि हमारा मूलभूत भिन्न विचार मेरे ख्याल से हमें मिल गया है और इस माध्यम से सुलझाया नहीं जा सकता, सहमति पर पहुँचाया नहीं जा सकता है.
पुनश्च, थोड़े कड़े शब्दों में, वैदिक ज्ञान को विज्ञान के केंद्र पर स्थापित करने के दिन लद चुके हैं क्योंकि हमने स्वतंत्रता के बाद विज्ञान से इतर मुद्दों पर ध्यान दिया और संभव है कि वही विचार अरब होकर यूरोप पहुंचे जहाँ उनकी पूजा करने की बजाय लोगों ने उन्हें परखा और कुछ नवीन और सक्षम विकसित किया. कोलोनियल कपट के शिकार होने के दुराग्रह को छोड़ कर हमें नए विज्ञान में कमर कस कर वैश्विक समाज के साथ योगदान देना चाहिए. हो सके तो हम शोध करें कि वैदिक विचार किस समय विकसित हुए और ठीक ठीक कैसे यूरोप तक पहुंचे ताकि हम वर्तमान विज्ञान के भुलाए हुए आधार के लिए कुछ आदर बचा पाएं.

उम्मीद है आपसे अन्य विषयों पर बहस होगी. इस उत्तर पर आपके विचार को ढंग से अवश्य पढूंगा.

परन्तु मेरी ओर से इति.


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यहाँ उपरोक्त बहस को मैंने ख़त्म माना है पर यदि कोई नया विचार वे प्रकट करते हैं और मुझे ज्ञात होता है, समय मिलता है तो अवश्य अपडेट करूँगा.



रविवार, 19 फ़रवरी 2017

चन्द्रकला

स्पर्श
सुबह का चुभता दूधिया उजलापन
मेरे फ़र्श पर
किताबों और कपड़ों के बिखराव में
ऊंघ रहा है
मेरी ठुड्डी से नीचे की ओर हाथ फेरता,
घिसता हुआ लुप्त हो जाता है
मेरे उदर तक पहुंचते-पहुंचते

प्रत्युत्तर
उसने अपनी गहरी काली आँखों से
भावनाहीन होकर मुझे देखा, और,

“क्या तुम मुझसे प्यार करते हो?”
“क्या तुम मुझसे प्यार करती हो?”
की कागज़ी दीवारों में
छेद हो गए
उनसे रक्त बहने लगा, हमारे शरीरों के सहारे
जो जम जायेगा धीरे-धीरे
और जिसे झाड़ना होगा बहुत मुश्किल

शर्त
क्योंकि यह महत्त्वपूर्ण नहीं है कि
मैं तुमसे प्यार करता हूँ
या तुम मुझसे प्यार करती हो
और हम आमरण/आजीवन साथ रहें

महत्वपूर्ण यह है कि
रात भर रक्त में नहाएं हम एक दूसरे को बिना देखे
और बलि चढ़ाई जाये हमारी सुबह
देवताओं और भगवानों को

शह
रंगीन बादल हवाओं के दामन में लेटे-लिपटे
धरतीवालों का मुजरा देख रहें हैं
सांझ की गंध फड़फड़ाती हुई आती है
और मेरे आग़ोश से तुम्हारे न होने की गंध को
चोरों की तरह ले भागती है
आज मातम है
आज मृत्यु है
जिधर देखो उधर फैली हुई

मैं तुम्हें बताता हूँ
तुम तोप के गोले से प्रश्न दागा करती हो
भला मैं जानता भी हूँ कि मुहब्बत क्या होती है?
मैं तुम्हें बताता हूँ

हम अपनी ख़यालों की दूरबीनें अदल-बदल कर लेते हैं
और भूल जातें हैं कि कौनसी किसकी थी
अतिदूरस्थ स्वप्नों को देखते हैं दोनों
इस भ्रान्ति में खोये, कि दोनों में से एक से तो
भविष्य अवश्य दिखेगा
मैं तुम्हें बताता हूँ
हम एक दूसरे के शरीरों में अपनी नाक घुसेड़कर
कोई रास्ता ढूँढने की कोशिश करते हैं
ताकि एक दूसरे के और क़रीब पहुँच सकें
पर भटकते-भटकते इतस्ततः, पहुँच जाते हैं
अपनी ही पीठ में

मैं तुम्हें बताता हूँ
हम जो कर रहें हैं
वो वही है

प्रहार
मैं तुम्हारी उदासी पर लिख रहा था
धागे गूंथ रहा था तुम्हारी ख़ामोशी में से

तुम फिच्च से हँस दीं
घुटे-पिसे लफ़्ज़ों की एक उतावली धारा
थूक दी तुमने
और तोड़ दी मेरी कविता



(यात्रा पत्रिका में "चंद्रकला" श्रृंखला की चार कविताएँ प्रकाशित हुईं थीं. शेष यहाँ पोस्ट कर रहा हूँ, जो नहीं हुई; अब देख कर समझ आता है क्यों नहीं हुईं.)

रविवार, 29 जनवरी 2017

झालावाड़

(गर्भनाल के दिसंबर, २०१६ अंक में मेरी दो कविताएँ प्रकाशित हुईं थीं. ये तीसरी कविता लौटा दी गयी थी)

अढाई पौने-तीन दशक के पड़ाव पर उसे
झालावाड़ के बीहड़ों में किसी सड़क ने अपने पाश में बाँधा
और निगल गई

उसके आगे का सारा जीवन उसने
उधर की
चिपचिपी, गीली अंतड़ियों में बिताया

वहां, जहाँ पानी कम, जहर ज्यादा है
खेतों में मिट्टी कम, पत्थर ज्यादा हैं
जहाँ के बाशिंदे असमय बूढ़े होकर झुक जाते हैं
मृत्यु के सजदे में
मोक्ष के इंतज़ार में
जो कभी नहीं आता

ठीक उसी प्रकार
जैसे, नयी और पुरानी सरकारों के कोई भी जुमले या वादे
नहीं पहुँचते वहां
न ही असर दिखाते हैं कोई

वहाँ गलियों में टट्टियाँ बिखरी हैं
वहाँ हर घर के आंगन में एक बच्चे की लाश गड़ी है
वहाँ हर लड़के के हाथ में गुलेल है
लाशों, टट्टियों और गुलेलों के सहारे
वो लड़ते हैं आज़ादी के लिए
सरकारों से और एक दूसरे से

बुहारी लेकर उसका चलना वहाँ की गलियों में
देता नहीं किसी को उम्मीद
सुलझाता नहीं उसकी ही निराशा

शुक्रवार, 13 जनवरी 2017

विघ्न

तुम कूद पड़े
हज़ारों उफनते नागों के मध्य

तुम्हारी प्रदूषित फुफकारों ने,
तुम्हारी दहाड़ती कदमताल ने
रोएँ खड़े कर दिए चट्टानों के
मिटा दीं पानियों की यादें
अब वो बहते नहीं हाथियों के गालों पर
जब वो सूंड से सहलाते हैं
अपने मरे हुए बच्चों के कंकालों को
वो पानी बर्बाद नहीं कर सकते
दिन-ब-दिन विकराल होते मौत के मंज़र पर

तुमने काट डाले उनके रास्ते
तुम खा गए उनके घर
तुम बढे जाते हो आगे, उनकी आत्माओं की कंदराओं में

सोमवार, 9 जनवरी 2017

दिवास्वप्न

अगर मेरे हाथ ढले होते किसी  बहुत ही मजबूत और कठोर धातु में,
मैं उखाड़ फैंकता 

कागज़ के आवरण
दीवारें-खिड़कियाँ-अलमारियाँ
सीमेंट-ईंटें-टाइल्स
सड़कें-मेट्रो-रेल की पटरियाँ
शहर के विशाल फैलाव
जंगल-जानवर-नदियाँ
घाटियाँ और उनकी हवाएँ
देश और दुनियाएँ


चीथड़े-चीथड़े कर देता
और होम देता आवाज़ों के बवंडर में
जो मैंने बनाए होते अपने हाथों से ही 


पर मैं माँस-हड्डी का कमज़ोर मानव
कोई कार टकरा जाए तो शिनाख्त करना मुश्किल हो जाता है

काश मैं दुर्दम्य होता ...
जब मैं चलता तो खरोंचें पड़ जातीं
धरती की छाती पर
उछलता तो भूचाल आ जाता
मैं बदल देता इस दुनिया का चेहरा अपने माकूल
ये सब सोचते वक़्त मैं नहीं सोचता
क्रमिक विकास के बारे में,
गाया थ्योरी के बारे में

बस जमाता जाता दुनिया के टुकड़े
अपने हिसाब से