शुक्रवार, 5 दिसंबर 2014

रम, ख़ुशी और ममत्व

रम के नशे में अलमस्त हो,
नथुआ
गन्ने के जंगल से निकल कर
गाँव की ओर बढ़ा
झूलती गलियों और लड़खड़ाते पेड़ों
को कोसते हुए
उसने सितारों से रास्ता पूछा --
पर सितारे टिमटिमाने में व्यस्त हैं,
धरतीवासियों और उनके
पियक्कड़ बच्चों के फालतू सवालों
पर वो भेजापच्ची नहीं करते

सो बिना खगोलीय सहायता के
उलजलूल दुनिया में
सिरफिरा खो गया
जब बिस्तर के गीलेपन में हाथ मारकर
उसने अपने होश खोजे
तो चाँद उसका मुँह चिढ़ा रहा था
और उसके कानों में
भैंस के गोबर और बरसाती पानी
का ठंडा मिश्रण
प्यार की तरह उतर रहा था

एक पागल बूढी भिखारिन,
जिस पर सड़क के दोनों ओर से
बिजली के खंभे पीली रोशनी मूत रहें हैं,
अपने बेहद छोटे छप्पर से
सिर निकालकर,
जोर-जोर से अपने टुंडे हाथ हिलाकर,
पोपले मुँह से हंसकर
टिन के पींपे सी खाली रात में
दर्शकों के एक काल्पनिक
हुजूम के सामने
अपनी ख़ुशी अकारण व्यक्त कर रही थी

कुछ दूरी से एक लटकते खाली थनों वाली
कुतिया,
जिसके तीन पिल्लों को
कुत्ता सरदारों ने गोधूलि के वक़्त
मार डाला था,
अपनी आखिरी संतान को लिए
शरण की तलाश में
बुढिया के छप्पर की ओर भागी चली आ रही है
(कीचड में लंपलेट हो बडबडाते शराबी को
कुतूहल से देखते हुए)

गाँव से नौ-तीस पर निकलने वाली
दिन की आखिरी बस खों-खों करती हुई
इन सब पर कीचड़ और धुआं
उछालती हुई चली गई

राहत की बात है
कि रम, ख़ुशी और ममत्व
काफी गर्म होते हैं;
ठंडी रातों में
ज़िगर को जकड कर बैठे रहते हैं। 

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