गुरुवार, 25 दिसंबर 2014

श्राप

अमावस्या की रात में
जंगलों में बसी आत्माएं
हवाओं के साथ तैरती
आसमान में खूब ऊपर पहुंचकर
ठहर जातीं हैं;
दुःख के साथ देखतीं हैं
धरती पर फैले हुए नासूर को
गन्दगी और दर्द से भरी नसें,
उनके ऊपर जमीं मवाद की
थोथी सुनहली स्फटिक;
व्याकुल हो फेर लेतीं हैं
अपने चेहरे

एक स्त्री का
ममतामय षट्कोणीय आनन पिण्ड
तैर आता है शहर की छत पर
डूब जाता बर्फीले शोर में
उसके रात से काले गेसुए
ढक देते
दरिद्रता के नग्न
स्तनों और पंगुता के अदृश्य
हाथों को
सुला देते
थके हारे कामगारों को
अपने आगोश में …

उसके बालों के छोर
गुदगुदाते होठों को,
खींच देते मुस्कराहट
निद्रालु शक़्लों पर

उसकी आँखों की मद्धम रोशनी
और श्वास की गर्मी में
भूल जाते हैं शहर को चलाने वाले
अपनी चिंताएं
खेलने लगते हैं अपने सपनों में
बचपन के खिलौनों की यादों से

अपने थरथराते पीले पड़ते होठों से
वो चूमती है
चौराहे की कठोर सतह,
ये कहते हुए कि,
"खूबसूरत हो तुम,
श्राप नहीं है तुम्हारा अस्तित्व।"

उसकी त्वचा को छूते हुए
बड़ी रफ़्तार से निकल जाती हैं
घबराई गाड़ियाँ

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