गुरुवार, 27 नवंबर 2014

मौन

अनंत से प्रतीत होने वाले
लावा के एक विशाल सागर
के ऊपर, मैं भाग रहा हूँ
बदहवास
किसी जिन्न की दाढ़ी के बाल
पर, बड़ी रफ़्तार से
किसी गुत्थी की ओर
सीधे, नपे-तुले रास्तों पर होते हुए
घुस गया असंख्य विमाओं वाले
देश-काल के बवंडर में
जहाँ बहुत सारी चीज़ें घटित होतीं है
बहुत धीमी गति से
एक साथ

भागते बेदम स्थूलकाय परिप्रेक्ष्य (मैं)
समय से पिछड़ने लगे हैं
घिस रहे हैं समाप्ति को
क्षितिज से जिन्न की विशाल लाल ऑंखें
विकृत हो
फिसल आती हैं
अग्नि के क़ालीन पर

एक विकराल अंतःस्फोट
चबा जाता है मेरे अस्तित्व को
वाष्पित हो जाती हैं
स्मृतियाँ
दामन से
दहाड़ती दिशाओं के
जबड़े आ टकराते हैं
शून्य पर

रिक्तता, अनुपस्थिति, मौन।

तह करके रख दिए हैं
ब्रह्माण्ड ने अपने कपडे
इन्द्रियों की पहुँच से परे

विस्मय के बैठने को भी
ठौर नहीं बची है



। 

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