शुक्रवार, 7 जुलाई 2017

भारत में विज्ञान की दुर्दशा और भाषा विवाद

क्या कारण है कि दुनिया के दूसरे सबसे विशाल भाषी समूह होने के बावज़ूद कोई भी वैज्ञानिक शोध पत्रिका भारतीय भाषाओँ में अपने शोध-पत्रों का अनुवाद करके प्रसारित नहीं करतीं है? नेचर और स्प्रिन्गर के विलय से बने प्रकाशन दानव की पत्रिका “नेचर” का प्रमुख हिस्सा विज्ञान की विविध शाखाओं में अत्याधुनिक शोध को प्रकाशित करता है. यह पत्रिका कोरिया, चीन और जापान जैसे देशों में, उनकी राष्ट्र भाषाओँ में अनूदित-प्रकाशित की जाती है. इसी प्रकाशन की पत्रिका “साइंटिफिक अमेरिकन”, जो कि विज्ञान में अभिरुचि रखने वाले सामान्य पाठक वर्ग के समक्ष नवीन वैज्ञानिक खोजों, अविष्कारों और उनसे उत्पन्न होने वाली विचारधारा को आकर्षक तरीक़े से पेश करती है. यह पत्रिका स्थानीय अनुवादकों और प्रकाशकों के सहयोग से तकरीबन बीस भाषाओँ में प्रकाशित की जाती है, जिनमे रूसी, ताईवानी और ब्राज़ीलियाई भाषाएँ शामिल हैं. नेचर की सालाना वेटेड फ्रेक्शनल काउंट इंडेक्स के हिसाब से भारत में शोध का आयतन ताइवान, ब्राज़ील और रूस जैसे देशों को कड़ी टक्कर दे रहा है. यद्यपि इस मामले में हम चीन और अमेरिका जैसे देशों के आस-पास भी नहीं फटकते, हमारे यहाँ शोध बड़ी तेज़ी से बढ़ रहा है, ख़ास कर जीव विज्ञान और रसायन विज्ञान में. हिंदी, मेंडेरिन के बाद दुनिया की सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है और बोलने वालों की संख्या रूसी, जापानी, कोरियाई इत्यादि से बहुत ज़्यादा है. तत्पश्चात, तमिल/ तेलुगु/ पंजाबी/ बंगाली आदि भाषाएँ भी बहुत पीछे नहीं हैं.

इसका ये अर्थ नहीं है कि भारत में शोध की स्थिति संतुष्टिपूर्ण है. बस यह कि अपने सामर्थ्य का एक नगण्य अंश देता हुआ भारत भी बहुत महत्वपूर्ण है. शोध की बढ़ोतरी से भी खुश मत होइएगा, सरकार ने जो अभी आधारभूत शोध की फंडिंग पर कुल्हाड़ी चला दी है उसका असर कुछ समय में नज़र आयेगा. डेढ़ अरब की आबादी वाले हमारे देश से जितने वैज्ञानिक शोध पत्र निकलते हैं उससे दो गुना ज़्यादा स्पेन से निकलते हैं और तकरीबन छः गुना चीन से. हर नेता के भाषण में हम यूएसए बनने के सपने देखते हैं. हमें याद रखना चाहिए कि मौजूदा तंग हालात के बावज़ूद यूएसए से निकलने वाला शोध आयतन में भारतीय विज्ञान का बीस गुना है!

भारत एक तेज़ी से बढती अर्थव्यवस्था है जहाँ आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा विज्ञान और प्रोद्योगिकी से वंचित है क्योंकि वो शेष छोटे हिस्से की भांति अंग्रेज़ी सीख नहीं सकता, आर्थिक और भाषिक मजबूरियों के कारण. ऐसे में सिर्फ़ अंग्रेज़ी का ज्ञान अभ्यर्थियों को कौशल और योग्यता की तुलना में कहीं आगे ले जाता है -- ऐसे स्थानों पर भी जहाँ अंग्रेज़ी की कोई आवश्यकता नहीं है. अंग्रेज़ी से इस विकारग्रस्त मोहब्बत का नतीज़ा है कि हमारे युवा दूसरे देशों की बनाई आधारभूत संरचनाओं में सस्ते बैल बनने को तैयार हैं बजाय अपने ही देश की आधारभूत संरचना को मज़बूत करने की कोशिश करने के. सच्चे अर्थों में आंत्रप्रीन्योर बनने के. उनको उदासीन महसूस कराने में हमारे संस्थानों ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी है. UGC द्वारा अनुमोदित शोध पत्रिकाओं की सूची देख लीजिये. विज्ञान और प्रोद्योगिकी वर्ग में एक भी भारतीय भाषा का जर्नल नहीं है. बंगाली/ तमिल/ तेलुगु तो दूर की चिड़ियाएँ है, हिंदी तक में विज्ञान का दस्तावेज़ीकरण शून्य के बराबर है. क्यों कोई सीखना चाहेगा हिंदी, अगर तकनीकी रूप से मज़बूत होना चाहता हो तो? यदि कोई सीखेगा, तो उसे मिलेगा क्या पढ़ने को? UGC की सूची से बाहर भारतीय भाषाओं में विज्ञान की दुर्दशा देखकर ही दिल दुहरा होने लगता है, जहाँ विज्ञान बस जादुई दवाइयों, बॉडी-बिल्डिंग और तथ्यों का अश्लील ढेर रह जाता है.

इसकी तुलना में जापान में जीव विज्ञान के 400 शोध जर्नल्स में से 300 जापानी भाषा में प्रकाशित होते हैं. आलम यह है कि वहाँ किये जाने वाले शोध को अंग्रेज़ी में अनुवाद करने की आवश्यकता पड़ती है. इन दोनों बातों में सम्बन्ध सिद्ध नहीं हुआ है पर यह एक सम्भावना है जो हमें भारतीय भाषाओँ के लिए खोजनी होगी. अन्यथा भारतीय विज्ञान इसी लूली रफ़्तार से चलता रहेगा और देश के भावी बेहतरीन वैज्ञानिक या तो वेंकी रामकृष्णन की तरह लन्दन में पनाह पाने को भागेंगे या फिर द्विभाषी न होने के ज़ुर्म में किसी ऐसे काम को करते हुए सज़ा काटेंगे जो करना उन्हें पसंद नहीं.

संभव है कि वित्त की कमी विज्ञान के प्रसार और शोध को धीमा कर दे. पर भारत में वैज्ञानिक गतिविधियों का अभाव मूलभूत रूप से स्थानीय भाषाओँ में उसकी अनुपलब्धता के कारण है. पर हिंदी तो काफी लचीली भाषा है जो किसी भी ढाँचे में ठीक-ठीक फिट हो सकती है. तो फिर हिंदी में विज्ञान का अभाव क्यों?

कारण अनावश्यक रूप से उलझी हुई अधिकतर समस्याओं की तरह स्पष्ट है. हिंदी विश्वार्द्ध में अपनी भाषा में विज्ञान में भाग लेने के प्रयास हो ही नहीं रहें है. सभी अंग्रेज़ी के माध्यम से उत्पन्न हुए हमारे योगदान से खुश हैं जो कि भारत की विशालता और संभावनाओं के आगे नगण्य है. हमारे निकट भविष्य के लक्ष्य, सुदूर भविष्य के लक्ष्यों पर हावी हो गए हैं. यदि अंग्रेज़ी सीखने से किसी को गोल्डमेन साक्स में नौकरी मिल जाती है, वो क्यों कोशिश करेगा भारत में वैसी कंपनी बनाने की! 2003 में फ़िनलैंड के वैज्ञानिकों ने अकादमिया में बढ़ते अंग्रेज़ी के प्रयोग के प्रति चेताया था कि यदि विज्ञान से फिन भाषा को हटाया गया तो प्रकृति की बारीकियों को पहचानने के मामले में धीरे-धीरे उनकी भाषा पंगु हो जाएगी. स्पष्ट है कि हिंदी में वो असर अभी से नज़र आने लगे हैं. किसी भाषा का हाल संस्कृत और लैटिन जैसा होने में समय नहीं लगता. लगभग सामान परेशानियाँ जापान और स्पेन के वैज्ञानिकों ने भी जताईं हैं.

जैसा कि गोथे ने कहा है, “जो दूसरी भाषाओँ को नहीं जानता, वो अपनी भाषा को भी नहीं जानता”.

हिंदी के तथाकथित कर्णधार हिंदी का प्रचार-प्रसार करने और अहिंदी प्रदेशों में उसे थोपने में जुटे हैं. हिंदी को भारत की राष्ट्रभाषा बनाने की कोशिश हो रही है. और हिंदी के बचे खुचे वक्ता और लेखक हिंदी की जड़ों को, उसके कारकों को भूलकर, राष्ट्रभाषा होने के दंभ में भरे अन्य भारतीय भाषाओँ को सीखने से इनकार कर चुके. हिंदी का क्रमिक विकास रुक चुका. दक्षिण भारतीय सरकारी विभागों में CCTV स्क्रीन्स पर हिंदी शब्द और उनके अंग्रेज़ी अर्थ दिखाए जाते हैं और कई कर्मचारी उन्हें सीखने का प्रयास करते नज़र आते हैं. हिंदी प्रदेशों में अन्य भाषाओँ के शब्द नहीं दिखाए जाते. ये कहना भर भी हिंदी भाषियों को अटपटा सा लगेगा. जब परा-सिन्धु प्रान्तों को एकीकृत करने निकली भाषा की दूसरी संस्कृतियों को आत्मसात करने की क्षमता विन्ध्याचल पार करते करते दम तोड़ दे तो उसका राष्ट्र-भाषा बनना तो लाज़मी नहीं. बजाय दक्खिन को शामिल करने के, हमारा झुकाव रोमन और लैटिन से उद्भूत भाषाओँ की ओर है जो फाइलो-लिंग्विस्टिकली हमसे कोसों दूर है. उन तत्वों को शामिल करना प्रगतिशीलता के खिलाफ़ नहीं है पर गड्ड-मड्ड प्राथमिकताओं का नतीज़ा अवश्य है.

ट्रांस-इंडियन भाषा के नारे लगाने की बजाय बेहतर होगा कि हम लोग विज्ञान और अर्थशास्त्र जैसे विषय, जो वैश्विक प्रगति में एक देश की भूमिका और महत्ता को निर्धारित करते हैं, अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाएं. अंग्रेज़ी को देश के विद्यालयों में पढाए जाते हुए 180 साल हो गए हैं. हमें यह भूलना होगा कि भारत के हर कोने में लोगों को अंग्रेज़ी या हिंदी सिखाई जा सकती है. हिंदी, बंगाली, पंजाबी, मराठी, तमिल, तेलुगु, मलयालम, कन्नड़, उड़िया, गुजराती इत्यादि भाषाएँ उनके विशाल भाषिक आधार से ऊपर किसी वैश्विक मंच की मोहताज़ नहीं है. इतने सारे पाठकों की जरूरतों को “दुस्साध्य” कहकर दुत्कार देने की बजाय हमें उन जरूरतों को पूरा करने की कोशिश करनी चाहिए. प्रयोग के तौर पर विश्व के प्रमुख वैज्ञानिक शोध पत्रों (जिनमें से अधिकतर ओपन सोर्स हैं) का अनुवाद करके ग्रामीण स्तर तक मुहैया कराना होगा. भारतीय भाषाओँ में इस प्रयोग की पहली हकदार हिंदी होगी (2001 की जनगणना के मुताबिक 41 प्रतिशत भारतीय हिंदी समूह को मातृभाषा मानते हैं और कुल 53 प्रतिशत हिंदी को जानते समझते हैं). तत्पश्चात, अन्य भाषाएँ सीधे अंग्रेज़ी से हिंदी वाले प्रयोग की समझ काम में लेते हुए या हिंदी अनुवाद से पुनः अनुवाद कर लाभान्वित हो सकतीं हैं.

तो हिंदी को दो लम्बी दूरी की दौड़ें तुरंत शुरू करने की आवश्यकता है: विश्व भर के वैज्ञानिक शोध को यथावत हिंदी में अनूदित करना और अन्य भारतीय भाषाओँ से ऐसी शब्दावली और संरचनाएं सोखना जो हिंदी में काम लीं जा सकतीं हैं.

इस प्रकार का प्रयोग सिर्फ़ प्रयोग के लिए नहीं होगा. यदि हम इतनी जानकारी लोगों को उपलब्ध करवाते हैं,

१. भारतीय पुरातन विज्ञान के बारे में फैले झूठ को सत्यों से अलग करने में जनता की भागीदारी होगी, बशर्ते अनुवाद पूर्णतया खुले मंच पर उपलब्ध हो
२. हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओँ के लिए तकनीकी और वैज्ञानिक शब्दावली तैयार होगी, बशर्ते उस शब्दावली को हम संस्कृत-करण से बचा पाएं
३. हिंदी और अन्य भाषाओँ के बीच खड़ी दीवारें कमज़ोर होंगी क्योंकि इस समय इनमें से कोई भी विज्ञान के मामले में आत्मनिर्भर नहीं है.
४. लोगों को उनकी अपनी भाषा में कुछ नया करने का मौक़ा मिलेगा और घरेलू इनोवेशन होने की संभावना बढ़ेगी.
५. भारत की मुख्यधारा के डिस्कोर्स में अंग्रेज़ी न जानने वाले लोगों की आवाज़ मज़बूत होगी. वर्तमान में देशज भाषाओँ को निम्न मानकर दरकिनार किया जाता है, यह सभी को विदित है.

समस्या यह है कि ये सब हवाई किले हैं. बड़ी संख्या में अलग-अलग विषयों से नौज़वान विद्वानों को व्यक्तिगत स्तर पर अनुवाद करना शुरू करना होगा. हिंदी में वैज्ञानिक डिस्कोर्स को जगह देनी होगी. हम यह मानकर विज्ञान को दरकिनार नहीं कर सकते हैं कि हम एक ग़रीब देश हैं. हमारी समस्याओं को सुलझाने के लिए बाहर से कोई नहीं आने वाला है. हो सकता है कि ये बीड़ा उठाने को पर्याप्त लोग न हों पर उस अक्रियता का अंजाम हमें ही भुगतना होगा.