गुरुवार, 29 जनवरी 2015

हँसी

जबड़ों, खपच्चियों और चिट्टे
की चिपचिपी दुनिया से
पीछा छुड़ा कर
भागा
पैरों में जंगली बिल्लियों की तरह
दौड़ती सिहरनों से
उकत कर

बूढ़े की मुक्त हृदय कत्थई हँसी ने
एक खुले मैदान की ओर
बुलाया
मैंने अपने फेफड़ों में
ताज़ी हवा भरी
पर सब व्यर्थ …
हाँफता, फुर-फुर साँस लेता
बढ़ा
कंकरीली धरती के सहारे
आशा की ओर

मिट्टी से रिस रिस कर
भूत बढे मेरी ओर
ट्रकों की वेगवान गुर्राहटों
से लदी नदी के किनारे
डामर सी काली रात में
खाया उन्होंने मुझे;
नख से शिख तक कुछ भी न छोड़ा

बियाबान में कहीं
अभी भी हँस रहा
कोई बूढा
कत्थे में लिपटी खाँसती सी हँसी

रविवार, 18 जनवरी 2015

मुस्कुराहट

सवेरे के परदों
ने दिन को रास्ता दिया
और सूरज की रोशनी
धड़धड़ाती हुई उतर आई
टेबल से फर्श पर

दातुन, साबुन और किताबें गर्माहट पाकर
खुश से हो गए
परदे बाहर वाले पेड़ की पत्तियों
की भाँति
मचलना बंद कर चुके

ननिहाल के
गोबर नीपे फर्श पर बने
मांडणों सी
पारदर्शी, गोलमटोल आकृतियाँ
क्रीड़ाएँ करने लगीं
दृष्टिपटल पर

सुग्गों का एक जोड़ा
पिंजड़े का दरवाजा खुला पाकर
बिना मुझे साथ लिए ही
फट्ट-फट्ट कर उड़ गया

बलिश्त भर मुस्कुराहट
ताज सी आ बैठी उसकी
ठुड्डी पर
झड़ गए दो दर्ज़न सितारे
प्यार के मारे
दिन दहाड़े ही

(प्यार-३)

शनिवार, 3 जनवरी 2015

नरसिंह

गुरुत्वाकर्षण को धता बताकर
विषधरों की तरह उठती हैं
उसकी अयाल से लटें
हवा में
उसके मस्तक के चारों ओर

उसकी आँखों में है
उद्दंडता की आग
जो भस्मीभूत किये देता है
उसके विरोधियों को,
सही या गलत।

वो रहता है ज्वलंत
अज्ञान की पपड़ियों के ऊपर या नीचे
आवश्यकता की भित्ति के दोनों ओर
रोशनी के पटल पर
और अँधेरे की गहराइयों में
थार के रेगिस्तान में
और
मुल्तान की अमराइयों में
करता है विद्रोह
विपत्ति से
प्रकृति से

वो मार सकता है
हिरण्यकश्यप को
अंदर, बाहर,
दिन में, रात में,
मर्त्य बन, अमर्त्य बन,
जल, थल और नभ में --

अपनी गोदी में,
देहलीज पर रखकर भी

ब्रह्मा देखते ही रह जाते हैं
अपने चारों मुख टेढ़े किये-किये
अपनी मूर्खताओं का विकराल रक्तरंजित भंजन