बुधवार, 19 नवंबर 2014

शहर की आत्मा

बीहड़ शहर के धुर मध्य में
एक मंच पर खड़ी हो
समृद्धि गुनगुनाती है
विचारों , आदर्शों और नैतिकता
के गीत

नीचे
कचरे के गड्ढों में
भीड़ उत्पात मचा रही है।
सड़ते अवशिष्टों से
उठती घनी दुर्गन्ध से
गश खाकर गिर पड़े हैं कौए
मृत्यु की मिक्सी में

शहर के किनारों पर तबाही मचाते
दानव
बढ़ रहे हैं गुरुत्व केंद्र की ओर
विनाश की भनक पाकर
एक अधनंगा पागल भिखमंगा
व्यस्त हो गया है
पॉलिथीन की थैलियाँ जुटाने में

मल और मूत्र की चौड़ी धाराओं को
मथ रहे हैं लाखों पैर
स्वर्ण निकलने के लिए

'ये गुनगुनाहट
शहर की आत्मा है
और ये भगदड़
अस्तित्व बचाने का
संघर्ष है
ये सब जरूरी है ,
ये सब वास्तविक है। ‘
वे मानते हैं।
और वे लग जाते हैं
पुनः पसीना बहाने

जब मृत्यु के संदेशवाहक
पहुंचेंगे
तो वे चढ़ाएंगे
सुवर्ण और पॉलिथीन के
चढ़ावे
बचायेंगे अपना अस्तित्व।

(प्यार-२)

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