मंगलवार, 18 नवंबर 2014

रुको … सुनो !

तुम घूमती हो व्याकुल हो कर
मेरे ह्रदय में, सदा छलते शिकार के पीछे
मैं अपनी क्षुधा, अपनी व्यथा
रात्रि के गले में उंडेलता हूँ

एक गूँज लौट कर आती है
और बहा ले जाती है मुझे
मैं विलाप करता हूँ, उष्म-बिम्ब !
तुम्हारे लिए

भय के मेंढकों की टर्र-टर्र
आभास कराती है, बाघिन के आगमन का
सचेत हो गए हैं कांटे और झाड़ियाँ
पर तुम अविचलित निकल गयीं मेरी
नाटकीय बक बक से
बिना मलिन हुए, बिना उत्तेजित हुए

मैं भूल रहा हूँ
सूत्रों और मन्त्रों की दुनिया को,
मेरे जेहन से मिट गए हैं
कवि , सियार और लकड़बग्घे
अविश्वास भरी आँखों से क्या देख रही हो मेरी तरफ ?
क्या अभी महसूस हुई है मेरी चेतना ?
मैं जंगल हूँ प्राणेश्वरी…
और मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूँ।

(प्यार-१)

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