बुधवार, 14 नवंबर 2018

सुरसा के मुख से : हमारे जमाने के भय: साहित्य बीकानेर में छपी चार कविताएँ

बोर

आँखों में रोष भरे
वो कोशिश करता है
एक चुटकुला सुनाने की
और सभा की चुप्पी उसे नागवार गुजरती है
रोष का उमड़ आता ज्वार
टकराता है
दीवारों से
जैसे तेज रफ़्तार से चलती कोई ट्रेन टकराती है
कीचड के विशाल ढेर से
एक चिपचिपा गीलापन ढ़क लेता है उसके कमरे की दीवारों को
उसकी हड्डियों में जंग लगता है
उसके घावों से पौधे उग आते हैं

कड़कड़ाकर कोई उठता है अपनी जगह है
उठने के श्रम से थककर बैठ जाता है अगले ही क्षण

बोरियत के ढेर पर लोग फेंकते हैं अधीरता से
पानी और फटे हुए रुमाल
डुबा नहीं पाते फिर भी

दबोच

एक पथरीले चेहरे वाली आग चबाती है किसी झोंपड़ी को
कर्णभेदी शोर के साथ
हवाओं को छाती पीटकर ललकारते हुए
कोई बाघ गर्दन दबाता है अपने शिकार की
हड्डियों का चटखना लाउडस्पीकर पर लगाए
कोई शरीर विघटित होता है
नाक को बींध देने वाली दुर्गन्ध के साथ

देखने वालों की आँखों में उतरे भय का
स्वाद अपनी जीभ पर लुढ़काते हुए
आँखों को टिकाए लक्ष्य
वो आगे बढ़ता है
वो कोई आम दानव नहीं है
जब तुम उससे आँखें मिलाते हो तो वो सीधे
घुस जाता है तुम्हारी हड्डियों में
और रेंगता हुआ खाता है तुम्हें सालों तक
तुम्हारी इच्छा के विरुद्ध ले जाता है तुम्हें
मजबूरी के डामरी दलदल में

खड़ताल

सुबह सुबह वो नहलाये ताज़ातरीन बाल फैलाए
खड़ताल बजाती हुई निकलती है
गाँव की पहली आँख खुलने से भी पहले
पतली कच्ची कीचड़ लदी गलियों के
उबकाहट भरे जंजाल में
भोंडे और कामुक भक्ति गीत गाते हुए
वो बिछाती है घटनाओं के नए चादर
पिछले दिन के खून, विष्ठा और मीठी नमी पर

जिनका कचूमर बना देंगे हम अगले दिन अपने कदमों से
बिना रीसाइकिल किये
बिना महसूस किये
हम कुलबुलाते दैनिक चर्या से निकलेंगे 
सड़कों पर सड़कें बिछ्तीं जाएँगी
किसी दिन वो छुपा देंगी हमारे घरों की अनगढ़ बदसूरती
किसी दिन हम बस असहाय से झांकेंगे अपने अपने गड्ढों से
सुनते हुए उसकी घंटों पहले बजाई खड़ताल की गूँज

भाईसाब

भाईसाब तुम तुर्रमखां नहीं कोई
तुम्हारे जैसे तराशे नक्श फैक्ट्री में बनकर आते हैं
मेरी दुकान पर लाइन से खड़े होकर मुंहबोली रक़म देकर फ्रूट खरीदते हैं
तुमको क्यों पड़ी है मोलभाव करने की
कैशबैक देंगे तुम्हारी ई-वॉलेट पर

तुम हमें ये बताओ की तुम कौन हो और कहाँ रहते हो
नहीं, नहीं. ये पद और कर्म के ढकोसले नहीं
तुम्हारे फड़फड़ाते दिल की मांसपेशियों के बीच
खून और दिमाग़ को अलग करने वाली पाल पर
तुम्हारी जाँघों की संधि में
तुम्हारे जठर की दीवारों को सुरक्षित रखने वाली ग्रंथियों के मुँह पर
तुम कौन हो.
मैं क्या कहता हूँ कि इधर सीधे सादे लोगाँ की बीच किधर घुस गए!
जेब के कड़े हो क्या?
प्राडक्टिव नहीं होना क्या तुम्हें?

तुम घर जाओ, आर्डर प्लेस करो
बताते हैं तुमको कि अगली चीज़ क्या खरीदनी है.

सुरसा के मुख से : हमारे जमाने के भय : स्क्रीन


समक्ष खड़े शख्स के शब्दों से भागते हुए
उसके चेहरे के उतारों और चढ़ावों पर निगाह सरकाते हुए
तुम धीरे धीरे नीचे आते हो
और अन्यमनस्कता को बड़े यत्न से छुपाकर
आर्त्त बेबसी जाहिर करते हुए
कान खड़े किये फ़ोन की तरफ देखते हो
नोटिफिकेशन या मैसेज न हो तो समय ही देख लो

पर
स्क्रीन में
एक घातक दरार है
भाग कर तुम लैपटॉप का फ्लैप खोल कर देखते हो
बातचीत के प्रवाह पर बड़ी अशिष्टता से कुल्हाड़ी चलाकर
उद्विग्नता तुम्हारी एक झटके से झन्नाकर पहाड़ी से कूद जाती है
टूटी हुई स्क्रीन के चर्राकर बाहर आए कोनों के पीछे
सिलिकॉन की हरी सर्किट छपी परत की झलक
त्राहि! त्राहि!
कलाई पर पहनी स्मार्टवाच पर रग्गे आ लगे हैं कहीं से
कुछ कह पाने की हालत में नहीं है वो
डेस्कटॉप, किंडल, टेबलेट
किसी अनदिखे स्क्रीन-संहार की शिकार हो चुकीं
घबराहट के मारे लम्बी सांस लेकर तुम
यह मानने की कोशिश करते हो
कि तुम ब्रह्माण्ड में अकेले हो
तुम्हारी कनपटियों से पसीने के नाले बह चलते है
और नसों की धमक से छत हिलने लगती है
स्वप्न से झटके से उठकर
१२X१२ के शीशे में
देखते हो अपनी भयातुर आकृति को
काश पिक्सलर उसे
टच अप करके, लाइकेबल बना कर
इन्स्टाग्राम पर पोस्ट करने की गुज़ारिश करे तुमसे
अधीर होकर दिलासा देते हो स्वयं को
दुनिया से सीधे बात करते वक़्त भी तुम
लगभग वही काम करने की क्षमता रखते हो...
पर क्या सच में?

मंगलवार, 6 नवंबर 2018

अभी पढ़ा: राजेन्द्र यादव का उपन्यास "सारा आकाश"

 किताब यहाँ खरीदें
(यदि आपने "सारा आकाश" नहीं पढ़ा है तो इस आर्टिकल को न पढ़ें. spoilers ahead.)
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पता नहीं अज्ञेय को ऐसा क्यों लगा कि इस उपन्यास के प्रारंभिक और अंतिम हिस्से आवश्यक नहीं थे और एकबारगी राजेंद्र यादव ने उनकी बात मान भी ली. धर्मांध लोगों के आतंरिक अंधेपन का सती-भक्त हुज़ूमी उन्माद बनना तो सबसे बेहतरीन अंत है. शायद अज्ञेय उन लोगों में से थे जिन्हें वाकई में भारतीयों के अंतर्मुखी होने पर गर्व हुआ करता है. और फिर यह कोई अनूठे शिल्प वाला, अक्लमंद उपन्यास तो है नहीं. अपने समय की एक भयावह समस्या को जड़ से नेरेट करता हुआ उपन्यास है. अगर मैं इसका झकझोर देने वाला अंत न पढता तो शायद इस किताब का मुझपर उतना गहरा असर न होता.

कहानी का मुख्य पात्र निहायत जाहिल और आसानी से बह जाने वाला आदमी है जिसके मन के विचार बस औरों की कही बातों की प्रतिध्वनि भर है. सामाजिक-राजनैतिक बहस का आदर्श मस्तिष्कहीन कड़ाह, जिसमें किसी नए विचार के लिए सम्मान "ये तो मैंने सोचा ही नहीं" के रूप में कौंधता है. फिरकापरस्ती कि तालीम लेते "राह भटके युवक" के लिए वह एक आदर्श स्कैफोल्ड होता है, पर डिप्रेशन के मारे आत्महन्ता को दया करके थोड़ा और बुद्धिमान बना देना चाहिए. वैसे हिन्दू फिरकापरस्तों के लिए "राह भटके युवक" वाली कहानी की बहुत ज़रूरत है. हिन्दू आतंकवादियों (अभी जो पालने में पैर दिखा रहे हैं) को बस एक संगठन की छाया बनाकर दिखा दिया जाता है; उनको समझने की आवश्यकता किसी को महसूस नहीं होती (मैंने बहुत सारी किताबें नहीं पढ़ीं है. यदि आपकी नज़र में कोई हो तो ज़रूर बताएं).

खैर, अब टिन के डब्बे की तरह पराये विचारों को गड़गड़ाते इस मूरख नारसिसिस्ट को सुनते सुनते, उपन्यास के अंत तक आते आते आदमी के कान थकने लगते हैं. शिरीष. नायक के कड़ाह में तलते विचारों का एकमात्र स्रोत (हमारे देश के बुद्धिजीवियों के विचार में समाज का अकेला औथोराईज्ड स्रोत). अगर उसकी जगह प्रवीण तोगड़िया होता तो हमारा नायक त्रिपुंड लगा, खड्ग लिए भी निकल पड़ता. उसके इम्पल्स का नतीज़ा बेचारी प्रभा भुगतती रहती है. तब समर का अपने आपको यह प्रश्न पूछना अच्छा लगता है कि क्या वो वाकई में प्रभा से प्रेम करता है? हालाँकि, वो प्रश्न भी उसके दिमाग में किसी और ने ही डाला है.

पर फिर मुन्नी और प्रभा के चरित्रों की तकलीफें उतनी ही ज़्यादा प्रभावित करतीं हैं क्योंकि उनका गला समाज तो घोट ही रहा है, उपन्यास ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी है. मेरे विचार में यह जान-बूझकर किया गया है और उपन्यास का वह तत्व है जो इसे एक अच्छी और ज़रूरी किताब की श्रेणी में ला रखता है. प्रेत बना नायक, पुलिस, अनमने श्रद्धालू और खिडकियों से झांकती सहमी औरतें. हमारा समाज सचमुच इनेक्शन का मारा था. लोग अन्याय के खिलाफ दंगे के भय से नहीं बोलते थे. आज के जमाने की स्त्रियाँ तो लिंगभेद के ऐसे स्पष्ट आचरण कि ईंट से ईंट बजा डालें. हालाँकि, वो प्रवृति आज मैं हिन्दू-मुसलमान के मामले में देखता हूँ.

यह बहुत सच बात है कि हमारा समाज अतीतजीवी और पलायनवादी है पर यह भी सनद रहे कि भारत के प्राचीन विज्ञान को ग्रीक और इजिप्शियन समाज के योगदानों जैसा सम्मान कभी नहीं मिला है. बात वहीँ आ जाती है कि आखिर लट्ठ के दम पर किसको कभी सम्मान मिला है!

शायद यही बेस्ट सेलर मटेरियल होता है -- जो कि किसी भी भाषा के साहित्य का बहुत जरूरी हिस्सा है, और हमने इसे खो दिया है. अगर आप इस प्रकार के आम अपील वाले कथानकों को प्रकाशित नहीं करेंगे तो उनकी जगह गुलशन नंदा जैसे लोग ले लेंगे. पॉप सेंसिबिलिटी को चित्रित करते लेखकों को मेरा पूरा समर्थन प्राप्त है.

राजेन्द्र यादव और मन्नू भंडारी को बराबर महत्वपूर्ण आँका जाता है -- जिससे मैं असहमत हूँ क्योंकि मन्नू भंडारी के कथानकों और चरित्रों में जो गहराई और निशब्द विस्तार होता है, राजेंद्र यादव के इस उपन्यास में तो नहीं है. अब अगर कोई कहता है कि मन्नू भंडारी का लेखन जनमानस की सशक्त अभिव्यक्ति नहीं है तो भैया, हमारे लिए तो ढंग से चित्रित फूल-पत्ती ही अच्छी. अंतरिक्ष के अँधेरे में चमकता नीला पिक्सलेटेड बिंदु किसने देखा है (जुमला Zakir Khan का है).

गुरुवार, 1 नवंबर 2018

अभी पढ़ा: पानू खोलिया का उपन्यास "वाहन"

बचपन में पानू खोलिया की एक कहानी पढ़ी थी, “प्रतिशोध”.
लगभग प्रलाप से भरी, एक बच्चे में मन की कहानी. शायद इसलिए उनके उपन्यास “वाहन” से मुझे कुछ अलग उम्मीद थी. (यहाँ खरीदें)

पर ये एक पुराने तरीके की किताब है, अपनी एक विशेष संरचना के बावज़ूद. पानू खोलिया का यह पूरा नावेल मुख्य किरदार “बाबूजी” के इर्द गिर्द घूमता है. हालांकि, लेखक परिप्रेक्ष्य को कथानक की ज़रूरत के मुताबिक बदलते रहते हैं. प्रेमचंद की तरह ही, सभी पात्रों के विचार एक अदृश्य, सर्वज्ञ नैरेटर हमें बताता रहता है. बाबूजी पुराने विचारों वाले आदमी हैं और अपने ठोस रूढ़िवादी विचारों को बदलते नहीं है, उनका बाहरी हुलिया बदलते जमाने के साथ भले ही बदलता जाय. एक तरह से वो हमारे समाज के द्योतक हैं जो पाश्चात्य संस्कृति से व्यापार करने के लिए दिखने मात्र के लिए तो मॉडर्न हो गया है पर उसके ठोस रूढ़िवाद जस के तस बने हुए हैं.

(यदि आपने उपन्यास नहीं पढ़ा है तो यहाँ से आगे न पढ़ें. spoilers ahead.)

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बाबूजी बड़े निर्दयी इंसान हैं. अपनी पत्नी को वो अपने घर का नहीं मानते, बुढापे में भी. अपने बच्चों को किसी इन्वेस्टमेंट की तरह बड़ा करते हैं, जाहिर है कि ये सिर्फ मर्दों पर लागू होता है. बेटियाँ ब्याहने की जिम्मेदारी है सो निपटा देनी है. न वो हमारी हुईं, न सामने वाले की हुई ठहरीं. शेष सब उनके लिए शतरंज के मोहरे हैं, कमज़ोर निकले तो फेंक दिए जाएँगे, मज़बूत निकले तो सर पर बिठाए जाएँगे. विपक्ष वाले मोहरे एक हिंसा के साथ नष्ट कर दिए जाएँगे. कोफ़्त होती है पढ़कर. पक्का ईविल पैट्रिआर्क.
पर फिर भी उनके सीधे सादे परिप्रेक्ष्य से सहानुभूति रहती है और उनकी बढती औकात पर ख़ुशी. पानू खोलिया का प्रलाप भरा तरीका कहीं न कहीं तो घुस ही आता है और बाबूजी को दिल के करीब ले आता है. और इसी वजह से मृत्यु के दिन-ब-दिन करीब होते बाबूजी जब अपने पूरे जीवन को फिर से सोचते हैं और अपनी कठोरता और धूर्तता पर पछतावा करते हैं तो उनके पैट्रिआर्क के नीचे गहरे दबे इंसान से सहानुभूति होती है.
(spoiler section ends)

आज के समय में ये उपन्यास मेरे जैसे लोगों को इसलिए रिलेवेंट नहीं लगता क्यूंकि मुझे लगता है कि हम उस प्रकार के लोगों को पीछे छोड़ आये हैं और ज़माना बदल गया है (जैसा सब प्रेमचंद को पढ़कर कहते हैं), पर क्या सचमुच? ख़बरें पढ़ कर तो नहीं लगता. हो सकता है पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव में भूले हम लोगों ने उस पीढ़ी की और बस आँखें मूँद लीं. अब जब वो पूरी हिंसा के साथ डंडे लिए अंधेरों से निकल कर आते हैं तो हम ये सोचते हैं कि कोई ऐसा कैसे हो सकता है. हम वैश्वीकरण की बाढ़ में बहकर अपने लेखों में, कला में, विज्ञान में – भूतकाल के एक पूरे पैराग्राफ को दफना चुके और उसके भूतों से बात करने का माद्दा हममें रहा नहीं. नए लेखकों के परिप्रेक्ष्य से भी ऐसे “मिथकीय” से लगने वाले लोगों को समझने की ज़रूरत है. शायद उससे हमारा साहित्य जनमानस के ज्यादा पास आ सके.