शुक्रवार, 21 नवंबर 2014

यज्ञ

सड़क किनारे एक बहरूपिया
इत्मीनान से सिगरेट सुलगाये
झाँक रहा है
अपनी कठौती में

चन्द्रमा की पीली पड़ी हुई परछाई
जल की लपटों के यज्ञ
में धू-धू कर जल रही है
रात के बादल धुंध के साथ मिलकर
छुपा लेते हैं तारों को
और नुकीले कोनो वाली इमारतों
से छलनी हो गया है
आसमान का मैला दामन
ठंडी हवा और भी भारी हो गयी है
निर्माण के हाहाकार से

उखाड़ दिया गया है
ईश्वरों को मानवता के केंद्र से
और अभिषेक किया जा रहा है
मर्त्यों का
विशाल भुजाओं वाले यन्त्र
विश्व का नक्शा बदल रहे हैं

उसके किले पर
तैमूर लंग ने धावा बोल दिया है
उस "इत्मीनान" के नीचे
लोहा पीटने की मशीनों की भाँति
संभावनाएं उछल कूद कर रहीं हैं
उत्पन्न कर रहीं हैं
मष्तिष्क को मथ देने वाला शोर

उसकी खोपड़ी से
चिंता और प्रलाप का मिश्रण बह चला है
और हिल रही हैं
आस्था की जड़ें

एक रंगविहीन परत के
दोनों और उबल रहा है
अथाह लावा

(नयी कविता लिखी ! )

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