सोमवार, 7 दिसंबर 2020

चुप्प चीख

 

थरथराते हुए

बॉल पेन का

गोल गुल चलने लगता है 

मलेरिया बुखार सा 

एक क्षण रफ़्तार से

फिर अवरोह में मंथर

गहरे गड्ढे में गिरने से ख़ुद को रोकता 


कोई सांड 

लकड़ी के दरवाज़े पर बार-बार 

सिर मारता है 

दरवाज़ा पसीने से लथपथ, चरमराता है 

फिर धीमे से साँस लेता 

अपनी जगह वापस आता है 

अपने जीवन के बचे खुचे क्षण गिनता 


फिर

वो दहाड़ कर टूटता है

अँधेरी गहराइयों में उसके

परखच्चे उड़ जाते हैं


परखच्चे उड़ जाते हैं

पन्नों के, जिल्द के

गुल खुरचता है खाली पन्नों को इतना

ऊपर नीचे दाएं-बाएं

किसी चीख की अवशिष्ट तरंग सा


नीचे, जमीन हो जाती है तितर-बितर

क्षीण हो जाता है एक ग्रह का केंद्र

और

बॉलपेन झल्लाता घिसटता रहता है

अँधेरी, रिक्त दिशाओं में