शनिवार, 13 दिसंबर 2014

रात

तालाब के गीले कोनो पर
ज़िन्दगी की जेबों में
सिमट कर बैठे हैं
गुलदस्ते
अपने घर मिटटी में डुबोए
इस इंतज़ार में कि
अनिर्वचनीय गंध वाली
अँधेरे की एक लट उन्हें प्यार
कर जाएगी
बयार सा ठंडा दामन
सहला जायेगा उन्हें
हंसी की सलवटों से लदी
नाक सा नन्हा चाँद
नहला देगा चांदनी से
उनकी खट्टी उँगलियों को

वो रात है स्वयं,
उसके हाथों से बने सीप से आवरण में सूरज
औंधे मुँह सोया है
सधे हुए नंगे कदमों से
सूखे पत्तों से लदी राह पर
वो रखती है ओस के मोती
सवेरे की दूब पर,
बढ़ती है पश्चिम की ओर
छिड़कते हुए
अल्हड़ मुस्कान का प्रभात

वो चलती है पानी पर यों
जैसे तैरते हैं बादल
पर्वत श्रृंखला के सहारे-सहारे

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