शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2016

पता लगाओ

अधपुती दीवारों के चरमराते ढक्कनों को चीरकर
वो बाहर आती है, क्रोध से जलती आँखों से घूरती हुई
और अपनी सारी ताक़त से चिल्लाकर कहती है,

क्या तुमने जाना, समझा, पता लगाया?
क्या तुम सुन भी रहे थे?
तुम्हारे आँख-नाक-कान किस काम के हैं?
तुम अपने कानों में सीसा भर,
हाथों से सीना ढक कर लेट जाओ
एक मुर्दे की भांति
आसमान तुमपर तूफ़ान बरपाएंगे,
रोएंगी फ़िजाएँ


वो सुन नहीं पाया,
विचित्र आवृति वाली ध्वनियाँ
नग्न हो मिट्टी में लोट-पोट हो रही हैं
उसके घुटने कमज़ोर हो गए हैं
वो इस व्यापक उजाड़ की स्वामिनी के क्रोध से थरथराते पैरों के पास गिर पड़ता है
अपने चेहरे से मिट्टी और अश्रुओं का मिश्रण चाट कर साफ़ करता है
कोशिश करता है घटनाओं को समझने की

वो सवार हो जाती है उसे पलट कर उसके जननांगों पर
वो देखता है भयभीत, चकित, रुग्ण; एक अभूतपूर्व प्रचंडता वाला तांडव.