रविवार, 19 फ़रवरी 2017

चन्द्रकला

स्पर्श
सुबह का चुभता दूधिया उजलापन
मेरे फ़र्श पर
किताबों और कपड़ों के बिखराव में
ऊंघ रहा है
मेरी ठुड्डी से नीचे की ओर हाथ फेरता,
घिसता हुआ लुप्त हो जाता है
मेरे उदर तक पहुंचते-पहुंचते

प्रत्युत्तर
उसने अपनी गहरी काली आँखों से
भावनाहीन होकर मुझे देखा, और,

“क्या तुम मुझसे प्यार करते हो?”
“क्या तुम मुझसे प्यार करती हो?”
की कागज़ी दीवारों में
छेद हो गए
उनसे रक्त बहने लगा, हमारे शरीरों के सहारे
जो जम जायेगा धीरे-धीरे
और जिसे झाड़ना होगा बहुत मुश्किल

शर्त
क्योंकि यह महत्त्वपूर्ण नहीं है कि
मैं तुमसे प्यार करता हूँ
या तुम मुझसे प्यार करती हो
और हम आमरण/आजीवन साथ रहें

महत्वपूर्ण यह है कि
रात भर रक्त में नहाएं हम एक दूसरे को बिना देखे
और बलि चढ़ाई जाये हमारी सुबह
देवताओं और भगवानों को

शह
रंगीन बादल हवाओं के दामन में लेटे-लिपटे
धरतीवालों का मुजरा देख रहें हैं
सांझ की गंध फड़फड़ाती हुई आती है
और मेरे आग़ोश से तुम्हारे न होने की गंध को
चोरों की तरह ले भागती है
आज मातम है
आज मृत्यु है
जिधर देखो उधर फैली हुई

मैं तुम्हें बताता हूँ
तुम तोप के गोले से प्रश्न दागा करती हो
भला मैं जानता भी हूँ कि मुहब्बत क्या होती है?
मैं तुम्हें बताता हूँ

हम अपनी ख़यालों की दूरबीनें अदल-बदल कर लेते हैं
और भूल जातें हैं कि कौनसी किसकी थी
अतिदूरस्थ स्वप्नों को देखते हैं दोनों
इस भ्रान्ति में खोये, कि दोनों में से एक से तो
भविष्य अवश्य दिखेगा
मैं तुम्हें बताता हूँ
हम एक दूसरे के शरीरों में अपनी नाक घुसेड़कर
कोई रास्ता ढूँढने की कोशिश करते हैं
ताकि एक दूसरे के और क़रीब पहुँच सकें
पर भटकते-भटकते इतस्ततः, पहुँच जाते हैं
अपनी ही पीठ में

मैं तुम्हें बताता हूँ
हम जो कर रहें हैं
वो वही है

प्रहार
मैं तुम्हारी उदासी पर लिख रहा था
धागे गूंथ रहा था तुम्हारी ख़ामोशी में से

तुम फिच्च से हँस दीं
घुटे-पिसे लफ़्ज़ों की एक उतावली धारा
थूक दी तुमने
और तोड़ दी मेरी कविता



(यात्रा पत्रिका में "चंद्रकला" श्रृंखला की चार कविताएँ प्रकाशित हुईं थीं. शेष यहाँ पोस्ट कर रहा हूँ, जो नहीं हुई; अब देख कर समझ आता है क्यों नहीं हुईं.)

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