बुधवार, 10 मई 2017

उखड़

दीवार-सी कठोर उसकी पीठ पर ठुकी कीलें हिल गयीं
रेशे तैर आए हरे गाढे द्रव के
काई से ढके, मच्छरों से तरबतर
सुगबुगे दलदली तालाब बन गए उसकी आँखों के चारों ओर
धँसती गयी उसकी जड़ें
किसी पुरानी गली में
ले आई है उसकी खोज उसे
कूदते-फाँदते, घिसटते-लटकते
उसकी साड़ी में छेद हो गए हैं
और मति में स्मृतिभ्रंश
अवाक्, उसने सर उठाया
दूर किसी बुड्ढे की खाँसी की भांति
सूने घर की काल्पनिक सांय सांय ने
झकझोरा उसे
पहेली सी गूँजती भाषा में

इसी डूब में कहीं आस पास उसका घर था
जिसके कोनों में उसके भय बसते थे
खेजड़ी के काँटों की तरह जो
रक्षा करते थे रह्स्यों की
जिनको नंगा कर देना था उसे हाड़ा रानी की तलवार से
जहाँ गुसलखाने में फिसल कर उसके नितम्ब का जोड़ हिल गया
दुविधाओं के वक़्त उस चोट की कसक लौट आती अचानक ही
जहाँ घट्टी की गरड़-गरड़ में पहाड़ों का रट्टा भुला जाता था
उनकी जगह आ बैठती थीं
विसंगतियों से लदीं कहानियां
जिसकी पानी की मोटर हेडीज़ की तरह भूतों को कुओं
से निकाल कर धूप में लेटा देती थी
उनकी संतुष्टि भरी आहों से उसके नथुने बेचैन हो उठते थे

उसके घुटनों में दर्द है
पर नितम्ब में कोई कसक नहीं
वो भौचक है कि कैसे कहानियों की डोरियाँ ले आयीं उसे
इधर
जहाँ से वो भागी थी भीगी, अधूरी बुनावटें लेकर
अरबों टिड्डे टकराए थे उसकी पीठ से
एक पत्ती भी साबुत नहीं बची
वहाँ धरती की नसों ने जमा कर दिया है
खालीपन का पीब
और अजनबीयत
ये उसका देश नहीं है
पर ये जगह उसकी है।

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