सोमवार, 9 जनवरी 2017

दिवास्वप्न

अगर मेरे हाथ ढले होते किसी  बहुत ही मजबूत और कठोर धातु में,
मैं उखाड़ फैंकता 

कागज़ के आवरण
दीवारें-खिड़कियाँ-अलमारियाँ
सीमेंट-ईंटें-टाइल्स
सड़कें-मेट्रो-रेल की पटरियाँ
शहर के विशाल फैलाव
जंगल-जानवर-नदियाँ
घाटियाँ और उनकी हवाएँ
देश और दुनियाएँ


चीथड़े-चीथड़े कर देता
और होम देता आवाज़ों के बवंडर में
जो मैंने बनाए होते अपने हाथों से ही 


पर मैं माँस-हड्डी का कमज़ोर मानव
कोई कार टकरा जाए तो शिनाख्त करना मुश्किल हो जाता है

काश मैं दुर्दम्य होता ...
जब मैं चलता तो खरोंचें पड़ जातीं
धरती की छाती पर
उछलता तो भूचाल आ जाता
मैं बदल देता इस दुनिया का चेहरा अपने माकूल
ये सब सोचते वक़्त मैं नहीं सोचता
क्रमिक विकास के बारे में,
गाया थ्योरी के बारे में

बस जमाता जाता दुनिया के टुकड़े
अपने हिसाब से

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