मंगलवार, 4 अप्रैल 2017

दुर्भिक्ष!

आधी फटी सीमेंट की चद्दर में से
झाँकती रेत और कंकड़-पत्थर
दूर तक फैले, आसमान में मिल गए कहीं
जहाँ तक मैं और मेरा भाई टहल आए
दुनिया-जहान की बातें करते करते

कहीं रस्ते में माँ की आवाज़ सुनाई दी
ये क्या कबाड़ फैला रखा है बरामदे में
संभल कर रक्खो ये सब
आसमान के रंग, अचल जल के विशाल चेहरे
ऊंटों की टपकाई गोलियां
रंगे-पुते नकली आदर्श घर
पारदर्शी स्वप्न
कुछ टूट फूट गया तो मुझे ओळमा न देना
संभल-संभल कर कदम रखना

अन्दर रख दो सब कुछ सार सम्हाल कर
जरुरत पड़े तब निकाल लाना

पर हम जानते हैं कहीं गहरे
अंतस में
अगर जमा कर रख दिया इन सबको
किसी ताक में अगर
बिखर जायेंगे रुधिर के सूखे थक्के की भांति ये
तब तुम आसमान की ओर देखकर कहोगी, माँ,
दुर्भिक्ष!

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