मंगलवार, 21 नवंबर 2017

कठोर

रेत और ठण्ड ने यहाँ की रातों के चेहरे
कठोर कर दिए हैं
उनमें धोरों की छाहें और बादलों की सलवटें हैं
उनकी आँखों में सितारों की साफ़-सुथरी झिलमिलाहट है
पथरीली राहों पर वो बिछातीं हैं प्रलय का शोर
और छोटे मोटे झरने
लबालब नदियों का खालीपन उनकी आँखों से बहता है
इस्पात के जंजाल में उनकी खनखनाती हँसी

अन्धकार में घिसटते विस्थापितों से विमुख वो
चाँद का दीर्घ निःश्वास छोड़तीं हैं
वो अपने शरणार्थियों
को पुचकार कर बुलातीं नहीं हैं
बस देखतीं रहतीं हैं भावहीन
जैसे कोई देखता है किसी रेल के जाने को
जिसमें उसे चढ़ना नहीं है

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