गुरुवार, 29 जनवरी 2015

हँसी

जबड़ों, खपच्चियों और चिट्टे
की चिपचिपी दुनिया से
पीछा छुड़ा कर
भागा
पैरों में जंगली बिल्लियों की तरह
दौड़ती सिहरनों से
उकत कर

बूढ़े की मुक्त हृदय कत्थई हँसी ने
एक खुले मैदान की ओर
बुलाया
मैंने अपने फेफड़ों में
ताज़ी हवा भरी
पर सब व्यर्थ …
हाँफता, फुर-फुर साँस लेता
बढ़ा
कंकरीली धरती के सहारे
आशा की ओर

मिट्टी से रिस रिस कर
भूत बढे मेरी ओर
ट्रकों की वेगवान गुर्राहटों
से लदी नदी के किनारे
डामर सी काली रात में
खाया उन्होंने मुझे;
नख से शिख तक कुछ भी न छोड़ा

बियाबान में कहीं
अभी भी हँस रहा
कोई बूढा
कत्थे में लिपटी खाँसती सी हँसी

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