गुरुवार, 1 नवंबर 2018

अभी पढ़ा: पानू खोलिया का उपन्यास "वाहन"

बचपन में पानू खोलिया की एक कहानी पढ़ी थी, “प्रतिशोध”.
लगभग प्रलाप से भरी, एक बच्चे में मन की कहानी. शायद इसलिए उनके उपन्यास “वाहन” से मुझे कुछ अलग उम्मीद थी. (यहाँ खरीदें)

पर ये एक पुराने तरीके की किताब है, अपनी एक विशेष संरचना के बावज़ूद. पानू खोलिया का यह पूरा नावेल मुख्य किरदार “बाबूजी” के इर्द गिर्द घूमता है. हालांकि, लेखक परिप्रेक्ष्य को कथानक की ज़रूरत के मुताबिक बदलते रहते हैं. प्रेमचंद की तरह ही, सभी पात्रों के विचार एक अदृश्य, सर्वज्ञ नैरेटर हमें बताता रहता है. बाबूजी पुराने विचारों वाले आदमी हैं और अपने ठोस रूढ़िवादी विचारों को बदलते नहीं है, उनका बाहरी हुलिया बदलते जमाने के साथ भले ही बदलता जाय. एक तरह से वो हमारे समाज के द्योतक हैं जो पाश्चात्य संस्कृति से व्यापार करने के लिए दिखने मात्र के लिए तो मॉडर्न हो गया है पर उसके ठोस रूढ़िवाद जस के तस बने हुए हैं.

(यदि आपने उपन्यास नहीं पढ़ा है तो यहाँ से आगे न पढ़ें. spoilers ahead.)

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बाबूजी बड़े निर्दयी इंसान हैं. अपनी पत्नी को वो अपने घर का नहीं मानते, बुढापे में भी. अपने बच्चों को किसी इन्वेस्टमेंट की तरह बड़ा करते हैं, जाहिर है कि ये सिर्फ मर्दों पर लागू होता है. बेटियाँ ब्याहने की जिम्मेदारी है सो निपटा देनी है. न वो हमारी हुईं, न सामने वाले की हुई ठहरीं. शेष सब उनके लिए शतरंज के मोहरे हैं, कमज़ोर निकले तो फेंक दिए जाएँगे, मज़बूत निकले तो सर पर बिठाए जाएँगे. विपक्ष वाले मोहरे एक हिंसा के साथ नष्ट कर दिए जाएँगे. कोफ़्त होती है पढ़कर. पक्का ईविल पैट्रिआर्क.
पर फिर भी उनके सीधे सादे परिप्रेक्ष्य से सहानुभूति रहती है और उनकी बढती औकात पर ख़ुशी. पानू खोलिया का प्रलाप भरा तरीका कहीं न कहीं तो घुस ही आता है और बाबूजी को दिल के करीब ले आता है. और इसी वजह से मृत्यु के दिन-ब-दिन करीब होते बाबूजी जब अपने पूरे जीवन को फिर से सोचते हैं और अपनी कठोरता और धूर्तता पर पछतावा करते हैं तो उनके पैट्रिआर्क के नीचे गहरे दबे इंसान से सहानुभूति होती है.
(spoiler section ends)

आज के समय में ये उपन्यास मेरे जैसे लोगों को इसलिए रिलेवेंट नहीं लगता क्यूंकि मुझे लगता है कि हम उस प्रकार के लोगों को पीछे छोड़ आये हैं और ज़माना बदल गया है (जैसा सब प्रेमचंद को पढ़कर कहते हैं), पर क्या सचमुच? ख़बरें पढ़ कर तो नहीं लगता. हो सकता है पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव में भूले हम लोगों ने उस पीढ़ी की और बस आँखें मूँद लीं. अब जब वो पूरी हिंसा के साथ डंडे लिए अंधेरों से निकल कर आते हैं तो हम ये सोचते हैं कि कोई ऐसा कैसे हो सकता है. हम वैश्वीकरण की बाढ़ में बहकर अपने लेखों में, कला में, विज्ञान में – भूतकाल के एक पूरे पैराग्राफ को दफना चुके और उसके भूतों से बात करने का माद्दा हममें रहा नहीं. नए लेखकों के परिप्रेक्ष्य से भी ऐसे “मिथकीय” से लगने वाले लोगों को समझने की ज़रूरत है. शायद उससे हमारा साहित्य जनमानस के ज्यादा पास आ सके. 

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