मंगलवार, 6 नवंबर 2018

अभी पढ़ा: राजेन्द्र यादव का उपन्यास "सारा आकाश"

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(यदि आपने "सारा आकाश" नहीं पढ़ा है तो इस आर्टिकल को न पढ़ें. spoilers ahead.)
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पता नहीं अज्ञेय को ऐसा क्यों लगा कि इस उपन्यास के प्रारंभिक और अंतिम हिस्से आवश्यक नहीं थे और एकबारगी राजेंद्र यादव ने उनकी बात मान भी ली. धर्मांध लोगों के आतंरिक अंधेपन का सती-भक्त हुज़ूमी उन्माद बनना तो सबसे बेहतरीन अंत है. शायद अज्ञेय उन लोगों में से थे जिन्हें वाकई में भारतीयों के अंतर्मुखी होने पर गर्व हुआ करता है. और फिर यह कोई अनूठे शिल्प वाला, अक्लमंद उपन्यास तो है नहीं. अपने समय की एक भयावह समस्या को जड़ से नेरेट करता हुआ उपन्यास है. अगर मैं इसका झकझोर देने वाला अंत न पढता तो शायद इस किताब का मुझपर उतना गहरा असर न होता.

कहानी का मुख्य पात्र निहायत जाहिल और आसानी से बह जाने वाला आदमी है जिसके मन के विचार बस औरों की कही बातों की प्रतिध्वनि भर है. सामाजिक-राजनैतिक बहस का आदर्श मस्तिष्कहीन कड़ाह, जिसमें किसी नए विचार के लिए सम्मान "ये तो मैंने सोचा ही नहीं" के रूप में कौंधता है. फिरकापरस्ती कि तालीम लेते "राह भटके युवक" के लिए वह एक आदर्श स्कैफोल्ड होता है, पर डिप्रेशन के मारे आत्महन्ता को दया करके थोड़ा और बुद्धिमान बना देना चाहिए. वैसे हिन्दू फिरकापरस्तों के लिए "राह भटके युवक" वाली कहानी की बहुत ज़रूरत है. हिन्दू आतंकवादियों (अभी जो पालने में पैर दिखा रहे हैं) को बस एक संगठन की छाया बनाकर दिखा दिया जाता है; उनको समझने की आवश्यकता किसी को महसूस नहीं होती (मैंने बहुत सारी किताबें नहीं पढ़ीं है. यदि आपकी नज़र में कोई हो तो ज़रूर बताएं).

खैर, अब टिन के डब्बे की तरह पराये विचारों को गड़गड़ाते इस मूरख नारसिसिस्ट को सुनते सुनते, उपन्यास के अंत तक आते आते आदमी के कान थकने लगते हैं. शिरीष. नायक के कड़ाह में तलते विचारों का एकमात्र स्रोत (हमारे देश के बुद्धिजीवियों के विचार में समाज का अकेला औथोराईज्ड स्रोत). अगर उसकी जगह प्रवीण तोगड़िया होता तो हमारा नायक त्रिपुंड लगा, खड्ग लिए भी निकल पड़ता. उसके इम्पल्स का नतीज़ा बेचारी प्रभा भुगतती रहती है. तब समर का अपने आपको यह प्रश्न पूछना अच्छा लगता है कि क्या वो वाकई में प्रभा से प्रेम करता है? हालाँकि, वो प्रश्न भी उसके दिमाग में किसी और ने ही डाला है.

पर फिर मुन्नी और प्रभा के चरित्रों की तकलीफें उतनी ही ज़्यादा प्रभावित करतीं हैं क्योंकि उनका गला समाज तो घोट ही रहा है, उपन्यास ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी है. मेरे विचार में यह जान-बूझकर किया गया है और उपन्यास का वह तत्व है जो इसे एक अच्छी और ज़रूरी किताब की श्रेणी में ला रखता है. प्रेत बना नायक, पुलिस, अनमने श्रद्धालू और खिडकियों से झांकती सहमी औरतें. हमारा समाज सचमुच इनेक्शन का मारा था. लोग अन्याय के खिलाफ दंगे के भय से नहीं बोलते थे. आज के जमाने की स्त्रियाँ तो लिंगभेद के ऐसे स्पष्ट आचरण कि ईंट से ईंट बजा डालें. हालाँकि, वो प्रवृति आज मैं हिन्दू-मुसलमान के मामले में देखता हूँ.

यह बहुत सच बात है कि हमारा समाज अतीतजीवी और पलायनवादी है पर यह भी सनद रहे कि भारत के प्राचीन विज्ञान को ग्रीक और इजिप्शियन समाज के योगदानों जैसा सम्मान कभी नहीं मिला है. बात वहीँ आ जाती है कि आखिर लट्ठ के दम पर किसको कभी सम्मान मिला है!

शायद यही बेस्ट सेलर मटेरियल होता है -- जो कि किसी भी भाषा के साहित्य का बहुत जरूरी हिस्सा है, और हमने इसे खो दिया है. अगर आप इस प्रकार के आम अपील वाले कथानकों को प्रकाशित नहीं करेंगे तो उनकी जगह गुलशन नंदा जैसे लोग ले लेंगे. पॉप सेंसिबिलिटी को चित्रित करते लेखकों को मेरा पूरा समर्थन प्राप्त है.

राजेन्द्र यादव और मन्नू भंडारी को बराबर महत्वपूर्ण आँका जाता है -- जिससे मैं असहमत हूँ क्योंकि मन्नू भंडारी के कथानकों और चरित्रों में जो गहराई और निशब्द विस्तार होता है, राजेंद्र यादव के इस उपन्यास में तो नहीं है. अब अगर कोई कहता है कि मन्नू भंडारी का लेखन जनमानस की सशक्त अभिव्यक्ति नहीं है तो भैया, हमारे लिए तो ढंग से चित्रित फूल-पत्ती ही अच्छी. अंतरिक्ष के अँधेरे में चमकता नीला पिक्सलेटेड बिंदु किसने देखा है (जुमला Zakir Khan का है).

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